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भिपकर्म-सिद्धि परिणाम-यह पारिभाषिक अर्थ में व्यवहुत होता है । इसका अर्थ काल है । काल का अर्थ होता है-दिन, रात, आयु, विविध ऋतु आदि । उदाहरणार्य शिशिर ऋतु को 'ले' इस ऋतु मे शीत का अत्यधिक होना अतियोग, गीत का न होना अयोग और क्वचित् उष्ण हो जाना मिथ्या योग कहलाता है। इसी तरह अन्य ऋतुओ के मबन्ध में भी समझना चाहिए। ऐसे जलवायु में प्राय जो रोग होते है, वे परिणामज या कालज कहलाते है । उस प्रकार काल या परिणाम रोगोत्पादक हेतु बनता है-मक्षेप में
कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः ।
सम्यग् योगश्च विज्ञयो रोगारोग्यककारणम् ।। हेतु का एक दूसरा वर्गीकरण भी किया जा सकता है। जैसे १ दोप हेतु २ व्याधि हेतु तथा ३ उभय हेतु ।
दोप हेतु-दोपप्रकोपक या दोपोत्पादक हेतु दोपहेतु कहलाते है । ये उत्पादक और व्यजक भेद से दो प्रकार के होते है । हेमन्त में मधुर रस कफ का उत्पादक होता है-(Exciting factor)। हेमन्त ऋतु मे सूर्य के मताप से द्रुत होकर कफज रोगो को पैदा करता है-यहाँ पर सूर्यसताप व्यजक हेतु हुआ । इसी प्रकार अन्य ऋतुओ के सचय, प्रकोप एव प्रशम के सम्बन्ध में भी जाना जा सकता है।
हेमन्ते निचित. श्लेष्मा दिनकृभाभिरीरितः।
कायाग्निं वाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते वहून् । इस प्रकार दोप हेतु मे Metabolic Disturbances पहले होता है पश्चात् रोग पैदा होना है।
व्याधि हेतु-इसमे हेतु सीधे व्याधि पैदा करता है । पश्चात् दोपो के वैषम्य होते है। इसमे अधिकतर आगन्तुक व्यधियो का समावेश हो जाता है । उपसर्गज व्यधियाँ, अभिघातज व्याधियाँ तथा अन्य बहु विध रोग जो आधुनिक युग के ग्रंथो मे पाये जाते है इसी वर्ग मे समाविष्ट है । पुराने उदाहरणो मे 'मृद्भक्षणात् पाण्डुरोग ।' 'मक्षिकाभक्षणात् छदि ।' आदि उदाहरण पाये जाते है।
दोष व्याध्युभय हेतु-विशिष्ट प्रकार के दोष प्रकोपण पूर्वक विशिष्ट व्याधि का होना इस वर्ग मे समझना चाहिए। इस की पुष्टि मे वातरक्त रोग का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। जिसमे हाथी, ऊँट और घोडा जैसे यान पर चलने से वात की, विदाही अन्न के सेवन से रक्त की तथा पैर लटके रहने वाली सवारियो की व्याधिकारिता दोष-हेतु, और व्याधि हेतु उभय हेतु प्रतिपादक होते है।