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भिपकर्म-सिद्धि परिज्ञान हो, उसे विशिष्ट कहते है। जैसा कि सामान्य एव विशिष्ट पूर्वरूपो के प्रसग मे देख चुके है।
विशिष्ट पूर्वरूप एवं रूप में भेद-वास्तव मे विशिष्ट पूर्व स्प के अर्थ में सज्ञा की रूढि हो गई है अन्यथा वहुत से इसमे लक्षण व्यक्त स्वरूप के होते है । फिर भी व्यक्तस्वरूप से उसका अतर शास्त्र में किया गया है। फलतः यह भेद ( रूप एव विशिष्ट पूर्वरुप ) का व्यवहार प्राचुर्य ( Majority ) पर आधारित है । जैसे मापराशि कहने से उडद की ढेर का अर्थ होता है उसमे कुछ मूंग के भी दाने हो तो भी मापराशि मे ही प्राचुर्य से उनका ग्रहण हो जाता है । उसी प्रकार 'छत्रिणो गच्छन्ति' छाते वाले जा रहे है, उनमें एकाध विना छाते के भी हो तो उनका एक ही सज्ञा से व्यवहार किया जाता है । यद्यपि ज्वर के विशिष्ट पूर्वरूप मे जृम्भादि को रूप कह सकते हैं तथापि जृम्भा की व्यक्तता होने पर भी अनेक लक्षणो की अव्यक्तता के कारण केवल जृम्भा को स्प नही कह सकते अपितु जृम्भा अन्य लक्षणो के साहचर्य से पूर्वस्प हो कहना उचित है । 'व्यपदेशस्त, भूयसा' व्यवहार प्राचुर्य पर आधारित है।
दूसरा भी एक अतर पूर्वरूप का रूप से है। पूर्वरूप भावी व्याधि का वोधक होता है और अनुमानगम्य रहता है, परन्तु रूप वर्तमान व्याधि का बोधक होता है और प्रत्यक्ष गम्य होता है। विशिष्ट पूर्वरूप तो स्पावस्था में प्रकट होता ही है और उसी का व्यक्त होना रूप कहा गया है परन्तु पूर्वरूप के सभी लक्षण व्यक्तावस्था रूप मे व्यक्त नही होते, अन्यथा सभी ज्वर असाध्य हो जावेगे-चरक मे लिखा है पूर्वस्प मे कहे गये सभी लक्षण अति मात्रा मे जिस रोगी को आक्रमण करते है उस रोगी की मृत्यु निश्चित है
"पूर्वरूपाणि सर्वाणि ज्वरोक्तान्यतिमात्रया। यं विशन्ति विशत्येनं मृत्युवरपुरःसरम् ।। अन्यस्यापि च रोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम् । विशन्त्यनेन कल्पेन तस्यापि मरणं ध्रुवम् ।।
रूपलक्षणम् ( Definition of Syndrome or Symptomatology )
यद्यपि पूर्वरूप के कथन के अनन्तर रोग की सम्प्राप्ति का प्रसंग आता है, तथापि व्याधि के स्वरूप ज्ञान के लिए और रूप के विपय को स्पष्ट करने के लिये पूर्वरूप से सम्बद्ध रूप की ही व्याख्या प्रथम की जा रही है।