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रुप निरुक्ति
द्वितीय अध्याय
रूपमित्यभिधीयते ।
१ तदेव व्यक्ततां यातं संस्थानं व्यञ्जनं चिह्नं लक्षणं चिह्नमाकृतिः ॥
अर्थात् व्यान हुआ पूर्वम्प ही रूप कहलाता है । पूर्वरूपावस्था में प्रतीयमान अव्यक्त लक्षण ही जब व्यक्त होकर व्याधि का निश्चित रूप से निदर्शक हो जाता है तो उसे स्प कहा जाता है । संस्थान, व्यजन, चिह्न और आकृति ये शब्द रूप के पर्याय रूप में व्यवहृत होते है |
२ प्रादुर्भूतलक्षण पुनर्लिङ्गम् । तत्र लिङ्गमाकृतिर्लक्षणं चिह्नं सस्थानं व्यञ्जनं रूपमित्यनर्थान्तरम् ॥
४. उत्पन्नव्याधिबोधकमेव लिङ्ग ं रूपम् ।
(
व्यक्त होने का अर्थ—उपर्युक्त दोनो परिभाषाओ मे
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( वा नि १ )
( च नि १ ) ३ व्याधे. स्वरूपम् अव्यक्तं पूर्वरूपम् यद्व्यक्तं तद् रूपमिति ।
( ईश्वरसेन ) ।
होना और उत्पन्न होना रोग की स्पावस्था मानी गयी है
मधुकोष ) । लक्षणो का स्पष्ट
। अव विचारणीय
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है कि क्या पूर्वरूप के सभी लक्षण रोग को रूपावस्था मे व्यक्त होते है या थोडे । यदि पूर्वरूप के सभी लक्षणो की व्यक्ति मान लो जावे तो सभी रोग अमाध्य हो जायेगे । जैसा कि चरक मे कहा गया है कि 'ज्वर के या अन्य रोग की पूर्वरूपावस्था के सभी लक्षण रोगी मे उत्पन्न हो जायें तो समझना चाहिये ।' यदि पूर्वरूपावस्था के कुछ ही लक्षणो की को रूप माना जाय तो 'जृम्भा, नयन- दाह, अन्नविद्वेष, हृदयोद्वेग' सदृश विशिष्ट पूर्वरूपो को जो पहले से ही व्यक्त रहते हैं, भी रूप के वर्ग मे ही रखना होगा । इस प्रकार उभय पक्ष मे दोप की सम्भावना है। शास्त्रकारो ने इस सम्बन्ध मे बतलाया है कि इस प्रकार की विवेचना की कोई आवश्यकता नही है - इसका कोई नियम नही है - एक लक्षण (एकदेशीय) या अनेक लक्षण (सम्पूर्ण) की अपेक्षा न करते हुए पूर्वरूप मात्र की अभिव्यक्ति को ही रूप कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि रोग तथा रोगी के अनुसार किसी मे कुछ और किसी मे सम्पूर्ण लक्षण भी रूपावस्था मे व्यक्त हो सकते है और ये व्यक्त हुए कतिपय या सम्पूर्ण उभयविवलक्षण ही रूप कहलायेगे । इसकी उपमा धूम ( धुएँ ) से दी गई है -- धूम को देखकर अग्नि का वोध किया जा सकता है, परन्तु वह तृण की अग्नि
रोगी को मुमूर्षु ही अभिव्यक्ति