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भिपकर्स-सिद्धि यहाँ पर हेतु-व्याधि-विपरीत अन्न एवं विहार जिने स्वभावोपरम भी कहते है-इस प्रकार की चिकित्मा-पद्धति का सिद्धान्त है । आज प्राकृतिक fafficht ( Nature Cure or Naturopathy ) H qrar FIAT है। वैद्यक ग्रन्थो मे पथ्य का अर्थात् आहार-विहार का बहुत वडा महत्त्व है। लोलिम्बराज वैच ने वैद्यजीवन नामक पुस्तक में पथ्य की प्रगंमा करते हुए लिखा है-यदि रोगी केवल पथ्य से रहे तो लोपथि की आवश्यकता नही उसी से अच्छा हो जावेगा। इसके विपरीत यदि अपथ्य से रहे तो भी औषधि की आवश्यकता नहीं क्योकि उसका रोग अच्छा नहीं होगा। इस प्रकार आहार-विहार का ही सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है औपधि को अकिचित् कर माना गया है । यही सिद्धान्त आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा का है
'पथ्ये सति गदातस्य किमीपधनिपेवणैः ।
पथ्येऽसति गदात्तस्य किमीपनिपेवणैः ।।' विपरीतार्थकारी चिकित्सा का सिद्धान्त होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्तो से समता रखते हैं-जने, 'ममान समान का गामक होता है।' 'विप ही विप का औपव है' ( Semelia Semilliasan curentum) यह सिद्वान्त होमियोपैथी चिकित्मा विद्या का है जो अधिकाग मे विपरीतार्थकारी चिकित्सा का प्रतिपादक है। इस प्रकार आयुर्वेद एक जान है जिसमें वहुविध चिकित्सा पद्धतियाँ मूत्र रूप में वर्णित है।
त्रिविध उपशय की कल्पना का प्रयोजन तथा हेतु-विपरीत एवं व्याधि-विपरीत उपक्रमो के भेद
हेतु-विपरीत उपक्रमो को दोप-विपरीत या दोपप्रत्यनीक भी कहा जाता है। जैसा कि ऊपर में कहा जा चुका है कि व्याधि एक कार्य है जिसमे हेतु या कारण रूप में, समवायिकारण दोप-प्रकोप, असमवायिकारण दोप-दूज्य सयोग एवं निमित्त कारण के रूप मे मिथ्याहार-विहार हेतु रूप मे आते हैं। अस्तु, हेतुविपरीत चिक्त्सिा का दोप विपरीत चिकित्सा गव्द से प्रयोग होता है। ___ वाप्यचन्द्र का कथन है--ज्वर आदि व्याधियो के दूर करने वाले सम्पूर्ण द्रव्य दोपप्रत्यनीक होते हैं किन्तु दोपत्रत्यनीक बौपधान्नविहार नियमितः व्याम्प्रित्यनीक नहीं होते दोपप्रत्यनीक और व्याधिप्रत्यनीक उपायों में मुख्य वही भेद है। उदाहरणार्थ-वमन एव लंघन कफ दोप का शामक होते हुए भी क्फजगुल्म को नष्ट नहीं करते, प्रत्युत इनका निपेव भी पाया जाता है .
कफे लंघनसाध्ये तु कत्तरि ज्वरगुल्मयोः । तुल्येऽपि देशकालादो लंघनं न च सम्मतम् ।।