________________
द्वितीय अध्याय
'विशेषात्तु जृम्भात्यर्थं समीरणात् । पितान्नयनयोर्दाह कफादन्नारुचिर्भवेत्' हारीत महिता मे भी आठ प्रकार के ज्वरो के कहने के पश्चात् वातिक ज्वर के लक्षणों का वर्णन करते हुए जृम्भा, अगमर्द एव हृदयोद्वेग प्रभृति लक्षणो का पूर्वरूप नाम ने प्रतिपादन मिलता है।
इति
पूर्वमष्टानां ज्वराणां सामान्यतः । विशेषतस्तु जृम्भाद्गमर्दभूयिष्ठं हृदयोद्वेगि वातजम् ॥
५१
नवीन गयो में भी पूर्वरूप प्रसग बहुविध रोगो के सम्बन्ध मे पाया जाता है अगेजी मे उन्हे ( Prodromata or Prominatory Signs कहा जाता है ।
जैसे - अपस्मार मे पूर्वग्रह ( Auar ) - दृष्टि का धुंधलापन, ( Dimness of Vision ), श्रवणविभ्रम विशिष्ट गन्ध या स्वाद, अनैमित्तिक मिथ्या ज्ञान, नर्वाङ्ग शरीर मे वेवनवत् पीडा ( तोद ), उदर एव हृत्प्रदेश मे विचित्र अनुभूति । अन्य भी रोगी मे दौरे की सूचना देने वाले विनिष्ट पूर्व पाये जाते है ।
अपस्मार के कुछ दिन या कुछ घंटे पूर्व शिरो-वेदना, दुर्बलता, तन्द्रा, क्षुन्नान, व्याकुलता आदि पूर्वकालिक चिह्न भी रोगी मे मिलते है । कुष्ट के पूर्व रूप मे – ज्वर, स्वेदाधिक्य, दौर्बल्य, अतिसार, नाना का सूखना, नासागत रक्न साव, गथिक कुष्ठ के पूर्वरूप मे मिलते है ।
इम तरह मस्तिष्कावसाद ( Mental Deperssion), शीतानुभूति, अरुचि, वातनाडी पीडा ( Neuralgic Pain ), स्पर्शवैपरीत्य ( Parasthesia ), आदि पूर्वरूपो का वर्णन वातिक कुष्ठ ( Nerveleprosy ) मे मिलता है |
उपसंहार - दूसरे शब्दो मे कहना हो तो ऐसा कहे कि व्याधिबोधक लक्षण रोगो मे दो प्रकार के पाये जाते है - १ सर्वाङ्ग वोधक २ एकाज-बोधक | सर्वाङ्ग वोक्क वे लक्षण हैं जिनसे व्याधि की जाति, विशिष्टता, निदान आदि का सम्यक् ज्ञान हो सके इसी को रूप नाम से आगे कहा जायेगा । एकाङ्गवोधक लक्षणो के दो भेद हो जाते हैं सामान्य एव विशिष्ट । यही वर्णन अब तक होता आया है । जिसे केवल व्याधि के श्रेणी का ज्ञान हो उसे सामान्य और जिससे व्याधि-जनक दोष का भी ज्ञान हो, साथ ही व्याध्युत्पादक निदान का