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द्वितीय अध्याय विषप्रकृतिकालान्नदोषदूष्यादिसंगमे ।
विषसंकटमुदिष्टं शतस्यैकोत्र जीवति ॥ (अ हृ उ०३५ ) दोषो की गति भेद से हेतु तीन प्रकार के पुन हो जाते है । 'क्षय. स्थान च वृद्धिश्च दोषाना त्रिविधा गति । ऊर्वश्वाधश्च तिर्यक् च विज्ञेया त्रिविधा परा। त्रिविधा चापरा कोष्ठशाखामर्मास्थि सधिपु। दोषा प्रवृद्धा. स्व लिङ्ग दर्शयन्ति यथावलम् । क्षीणा जहति स्व लिङ्ग समा स्व कर्म कुर्वते । च सू १५ ।
चिकित्सा मे इन हेतुओ का ज्ञान अपेक्षित है-जिससे सुश्रुत के अनुसार'क्षीणा वर्धयितव्या, समा पालयितव्या वृद्धा ह्रासयितव्या" अर्थात् क्षीण दोपो को बढावे, वढे दोपो को कम करे और समान दोषो का पालन करे । गति मे ऊर्ध्वग या अधोग आदि का विचार उपचार मे अपेक्षित रहता है । उदाहरणार्थ रक्त पित्त मे प्रतिमार्ग से दोपहरण का विधान है-अर्थात् विपरीत मार्गों से दोषो को निकालना चाहिये । यदि रक्त पित्त ऊर्ध्वग है तो उसका रेचन के द्वारा और यदि अधोग है तो वमन करा के दोपो को निकालने का विधान है "प्रतिमार्ग च हरण रक्तपित्ते विधीयते ।" "विरेक पित्तहराणा" इतने सूत्र से कार्य नही चलता जब तक कि रक्तपित्त रोग मे ऊवधि गति का ज्ञान न हो।
निर्यग् गतियुक्त दोपो से उत्पन्न ज्वर सदृश रोगो मे शास्त्र मतानुकूल चिकित्सा करनी चाहिये । चरक ने दोपो के विविध प्रकार की गतियो को दुर्विज्ञेय कहा है । दोषो की शरीर मे इतनी प्रकार की गतियाँ हो सकती है कि उनका ठीक ठीक ज्ञान करना कठिन है तथापि कुछ प्रधान गतियो के अनुसार हेतु तथा व्याधि का भेद किया जा सकता है अन्यथा जैसे "ससार मे वायु, अग्नि तथा चन्द्र की गतियां दुविज्ञेय है उसी प्रकार वात, पित्त और कफ दोषो की भी शरीर मे होने वाली गतियो की ठीक ठीक जानकारी कठिन होती है।"
लोके वायवर्कसोमानां दुर्विज्ञेया यथा गतिः। तथा शरीरे वातस्य पित्तस्य च कफस्य च ॥
(च० चि० २९) दोपों की गति का ही एक और भेद-आशयापकर्प भेद से भी गति भेद होता है "क्षय स्थान च वृद्धिश्च दोपाणा त्रिविधा गति ।" यहा स्थान से स्थानापकर्प या आशयापकर्ष समझना चाहिए । सर्व शरीर व्यापक होते हुए भी प्रत्येक दोप का स्थान या श्राशय नियत रहता है । "ते व्यापिनोपि हृन्नाम्योरवोमध्योर्ध्वसश्रया." ( वाग्भट ) । आशय आठ होते है-वाताशय, पित्ताशय, श्लेष्माशय रक्ताशय, आमाशय, पक्वाशय, मूत्राशय और स्त्रियो में गर्भाशय,(सु०) आम तौर से दोष प्रकुपित होकर ही विमार्ग गमन या स्थानान्तरण करते हैं,