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भिपकर्म-सिद्धि
हेतु भेद - सर्व प्रथम हेतु के चार भेद होते है मन्निकृष्ट, विप्रकृष्ट, व्यभिचारी
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तथा प्राधानिक । सन्निकृष्ट-रात, दिन एवं भोजन के तीन विभाग निये गये है, उन विभागो मे कुछ दोपो का स्वभाव से कोप होकर रोगोत्पत्ति होती है, उनमे सचय की अपेक्षा नही रहती है-जैसे दिन के प्रात काल (प्रभात मे) से कफ का, दिन के मध्य ( दोपहर मे ) पित्त का और सायाह्न ( शाम को ) मे वायु का कोप होता है । इसे Exposure कह सकते है जो रोगोत्पादन में सन्निकृष्ट हेतु बनता है ।
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विप्रकृष्ट - हेमन्त ऋतु मे सचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में कफज रोग पैदा करता है । यह दूरस्य या विप्रकृष्ट हेतु है । ज्वर मे सन्निकृष्ट हेतु मिथ्याहार विहार है, परन्तु विप्रकृष्ट हेतु रुद्र कोप है । इसे अग्रेजी में Remote cause कह सकते है । जैमे उपसर्गजन्य ज्वरो मे एव कालाजार में मत्मचिका दंग यह Remote cause और Leishmen Don bodies का उपसर्ग मन्निकृष्ट हेतु है इनमे जो प्रवल होता है सर्व प्रथम उनका उपचार अपेक्षित रहता है परन्तु यदि विप्रकृष्ट हेतु ही प्रवल हो जाय तो प्रथम उनी का उपचार करना न्यायोचित रहता है। वलावल का विचार करते हुए मन्निकृष्ट तथा विप्रकृष्ट हेतुओ का परिवर्जन पूर्वापर भेद से कहना आवश्यक होता है ।
विप्रकृष्ट कारणो के शरीर मे प्रवेश से लेकर रोगोत्पत्ति होने तक का काल संचय काल ( Incubation period) कहलाता है ।
व्यभिचारी- जो हेतु दुर्बल होने से व्याधि को उत्पन्न करने में असमर्थ होता है उसे व्यभिचारी कहते है । "अवलीयासोव्ननुवन्ति न तदा विकाराभिनिवृत्ति, ।” चरक । प्रतिदिन बहुत प्रकार असात्म्य द्रव्यों का सम्पर्क, रोगोत्पादक जीवाणुओ का सन्निवेश या मिथ्या आहार, विहार, आचार, खाद्य, पेयादि का संबंध शरीर के साथ होता रहता है यदि रोगोत्पादक हेतु कमजोर हुए अथवा शरीर को रोग निरोधी क्षमता ( Immunity ) प्रवल हुई तो रोग नही पैदा होते हैं । इस प्रकार के रोगोत्पादक हेतु व्यभिचारी स्वरूप के होते हैं । रोगोत्पादन मो इनका महत्त्व न होने से इनका व्याधि के निदान मे कोई प्रमुख स्थान नही दिय जा सकता । ( Natural Immunity, Body resistance )
प्राधानिक- - प्रवल - प्रधान या उग्र स्वरूप के हेतु जो शरीर गत दोपो को कुपित करके ( Metabolic Disturbances पैदा करके ) सद्य रोगो - त्पादक होता है उसे प्राधानिक हेतु कहते हैं । विविध प्रकार के मारक विषो का सेवन इस वर्ग मे आता है ।" रुक्षमुष्णं तथा तीक्ष्ण सूक्ष्म मागुव्यवायि चाविकागि विशदञ्चैव लव्वपाकि च तत्स्मृतम् ॥" ( सु० )