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द्वितीय अध्याय कहते है । जव कि मम्प्राप्ति मे केवल कुपित दोषो का व्यापार ही रहता है। अस्तु, निदान का निर्दुष्ट ( दोपरहित ) लक्षण 'सेतिकर्तव्यताको रोगोत्पादकहेतुर्निदानम्' यही होगा। ___ कुछ विद्वानो ने व्याधिजन्म को सम्प्राप्ति माना है 'व्याधिजन्मेव सम्प्राप्ति'। यही यदि सम्मत हो तो 'व्याध्युत्पत्तिहेतुर्निदानम्' इतना ही लक्षण हेतु का बनाया 'जावे, यह पर्याप्त एव निर्दष्ट होगा। इस लक्षण को सम्प्राप्ति मे अतिव्याप्ति नही होगी, साथ ही उत्पादक शब्द देने से ज्ञापक कारणो जैसे, पूर्वरूपरूप-उपशय से भी लक्षण की निवृत्ति हो जावेगी क्योकि ये तीनो रोग के उत्पादक न होकर ज्ञापक या व्यजक मात्र होते है ।।
उपर्युक्त लक्षण के आधार सकल कारण-समूह अर्थात् बाह्य--मिथ्याहारविहार, अभिघात एव अणु जीवो के उपसर्ग तथा आभ्यन्तर कारण-दोपवैपम्य एव दूव्य-दोप-सयोग का भी निदान शब्द से रोग जनक निमित्त-समवायि तथा असमवायि तीनो कारणो का ग्रहण हो जाता है। परन्तु स्व० गणनाथ सेन सरस्वती जी ने केवल वाह्य कारण को ही निदान माना है, जैसा कि निम्नलिखित वचन से स्पष्ट हो रहा है
वाह्यं निमित्तं रोगाणां निदानमिति कीर्तितम् । विधाय दोपवैषम्यं साक्षाद् वा रोगकारि तत् ॥ निमित्तं पद समवायिकारणाना दोपदूष्याणाम् , असमवायिकारणस्य दोपदूष्यसंयोगस्य वारणार्थम् ।
( सिद्धान्तनिदानम् ) स्व० गणनाथ सेन जी का सिद्धान्त जिसमे बाह्य निमित्तो को ही रोगोत्पादक हेतु माना गया है, समुचित प्रतीत होता है, क्योकि रोगोत्पादक अन्य कारणो का समवायी एव असमवायी कारणो का तो सम्प्राप्ति मे भी अन्तर्भाव हो जाता है। वस्तुत. प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के लिये समवायी, असमवायी एव निमित्त विविध कारणो की आवश्यकता पड़ती है। रोग भी एक कार्य है, उसकी उत्पत्ति मे दोप-वैपम्य समवायिकारण, दोप-दूष्य-सयोग असमवायिकारण तथा वाह्य आहार, आचार, अभिघात, जीवाणु आदि निमित्तकारण रूप मे पाये