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यकाल ध्रुवतत्व विशद्ध आत्मतत्व ही नग्नय से समयसार है। जो दूसरों का तो कभा स्मरण नहीं करता है पर जिनका स्मरण मुनिन्द्र, देवेन्द्र नरन्द्रादि करते हैं वह परमेश्वर, प्रविम अहन विष्णु पूज्यपाद, परमाराध्य त्रिलोक पूज्य स्वशुद्ध तप, उत्कृष्ट परमोपदेय द्रव्य समयसार है। यः स्मधेने सर्व मुनीन्द्र वृन्दैः
यः सूयते सर्वतरामरेन्द्रः । या गीयते वेद पुगण शास्त्रः
स देव देवो हृदये ममास्ताम् ।। भा द्वा. १२ ।। यो दर्शन जान सुख स्वभावः
समस्त संसार विकार बाह्यः ममाधिगम्यः परमात्म्स ज्ञः
स देवदेवा हुदये । म नाम् ।। भा. द्वा. १३ । यो व्यापको विश्व जनीन वृत्ते:
मिड़ी विबुद्धी द्युत कर्मबन्धः । ष्यातो घुनीता सफल विकार
म देवदेवो हृदयं ममास्ताम् ।। भा. द्वा. १३ ।। निमल: केवल: सिद्धो विवियत प्रभुक्षय । परमेष्टी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ।। समाधिपतकम् ६ ।। नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासत । चित्स्वभावाय भावाय सर्व भावान्तर विवे ।। अमृतकलश १ ॥
उपाध्याय मुनिश्री कनकमनि
७-११-८७ धर्मकी परीक्षा
प्रथा सुवर्ण परिक्ष्यते घर्षण छेवन ताप ताउनः ।।
धर्मो विदुषाः परीक्ष्यते श्रुतेन शोलेन तपदयागुणः ।।
जैसे सुवर्णको घर्षण, छेदन, अग्निमे तपना, एवं ताडना से परीक्षा करके शुझसुवर्ण ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी धर्म को शास्त्रसे, शीलसे, तपसे एवं दया गुण से परीक्षा करके पाद्ध धर्म को ग्रहण करता है। मर्थात् जिस धर्म में अविरोध शास्त्र है. शील है, तपश्चर्या है, दया धर्म है चही धर्म मस्यधम हे अन्य धर्म कुधर्म है । अज्ञानी, मिथ्यादिष्टि, बुद्धिहीन जन प्यादिहीने धर्मको स्वीकार करते है, जानी, सम्यग्दृष्टि बुद्धिमान जन नहीं ।