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अनेकान्त/54-1
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आदिपुराण का भाषाई पक्ष
- प्रो. वृषभ प्रसाद जैन यह निबन्ध कुछ मूलभूत समस्याओं की उद्भावनाओं के साथ प्रारम्भ किया जाना अपेक्षित है क्योंकि आदिपुराण की भाषा किसी भी सामान्य प्रयोक्ता के प्रयोग-जैसी भाषा नहीं है। कोई भी सामान्य भाषा प्रयोक्ता अपने कथ्य को ग्रहीता तक पहुँचाने के लिए माध्यम बनाता है अपने भाषिकोच्चार (Speech Form) को, इसीलिए भाषाविज्ञान में भाषिकोच्चार को ही भाषा के सबसे सटीक अप्रभावित रूप के रूप में लिया जाता है, यही कारण है कि आज के भाषाविज्ञान में उसे विश्लेषण का केन्द्र माना गया है। चूंकि आचार्य जिनसेन के द्वारा रचित आदिपुराण का भाषिकोच्चार रूप आज उपलब्ध नहीं है, इसीलिए भाषिकोच्चार के विश्लेषण करने वाले भाषाविज्ञान के मापक आदिपुराण की भाषा पर लागू नहीं हो सकते। दृसरा कारण यह कि भाषाविज्ञान में सामान्यतया किसी पाठ (Text) के विश्लेषण के लिए वाक्य, उपवाक्य, पदबन्ध, पद, शब्द, रूपिम, ध्वनि आदि घटक छाँटे जाते हैं, क्योंकि ये घटक ही प्रयोक्ता के संदेश-संप्रेषण के माध्यम बनते हैं पर यदि इन भाषाई घटकों के आधार पर आदिपुराण की भाषा को विश्लेषित किया जायेगा तो मुझे लगता है कि आदिपुराण का पाठ रूप इतना खण्डित हो जायेगा या फिर तार-तार हो जायगा कि फिर उस पाठ को अखण्ड पाठ के रूप में देखना संभव नहीं रह जाएगा और ऐसे विश्लेषण से आदिपुराण के पाठ के कुछ विशिष्ट पक्ष या अनुद्घाटित पक्ष उद्घाटित भी नहीं होंगे। यदि कोई शोधपत्र किसी अनछुये या अज्ञात रूप को उद्घाटित नहीं करता है तो मुझे लगता है कि वह विश्लेषण केवल विश्लेषण के लिए है, किसी प्रयोजन के लिए नहीं; इसीलिए वह शोधपत्र भी नहीं रह जाता। इसीलिए मैं समझता हूँ कि पहले आदिपुराण की भाषा की प्रकृति को समझा जाय, तब उसक विश्लपण के आयामों को स्थिर किया जाय और फिर उसके बाद तदनुसार विश्लेपण। cecececececececececececececececec ses