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अनेकान्त/54-2
उसके पश्चात् वह शुद्धात्मा ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक ही समय में लोक के अन्त पर्यन्त जाकर सिद्धालय में विराजमान
हो जाता है। जैन श्रमणाचार में ज्ञान और ध्यान ये दोनों कार्य श्रमण के विशेष रूप से वर्णित किये गये हैं। आन्तरिक तपों में ध्यान साधना पर विशेष बल दिया गया है। अतः कर्म क्षय में ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है।
सन्दर्भ 1. सूत्रताङ्ग , शीलांककृत टीका 1/16 2. एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमिति-मूलाचारवृत्ति 5/197 3. उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्। तत्वार्थसूत्र 9/27 4. एकस्मिन् प्रमेये निरुद्धज्ञानसततिर्ध्यानम्-विजयोदया टीका पृ. 249 5. भगवती आराधना गाथा 1701 की विजयोदया टीका पृ 756 6. आदिपुराण 2118 7. वही 21/9 8. वही 21/12 9 स्थानांग सूत्र-4 10. तत्वार्थसूत्र 9/28 11. सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 351 12-14 भगवती आराधना गाथा 1697, 1692, 1699 15 तत्वार्थसूत्र 9/27 16-17 भगवती आराधना गाथा 1703 की विजयोदया टीका पृ. 757, गाथा 1704 18 ठाणं 4/66 पृ 310 19-24. भगवती आराधना 1870, 1705, 1706, 1707, 1708, 1709 25 सर्वार्थ सिद्धि 9/28 पृ. 874 26. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 481 27 भगवती आराधना गाथा 1871 28. तत्वार्थसूत्र 9/39 29-32. भगवती आराधना गाथा 1872-1875, 1878, 1881, 1883
- वरिष्ठ प्राध्यापक, जैन विद्या एवं
तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.)