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अनेकान्त/54-2
इस अर्थ को देखकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रगट की काल का वर्णन तो अगले श्लोक में एक भक्त या उपवास के समय सामायिक विशेष रूप से करना चाहिए। दूसरे दिन उन्होंने प्रात:काल वीरसेवा मंदिर सरसावा में ही मेरा शास्त्र प्रवचन रखा; शास्त्र प्रवचन में मैंने प्रकरण प्राप्त "अनेकान्त" की व्याख्या करते हुए कहा कि अनेक का अर्थ यह नहीं कि नीबू खट्टा भी है, पीला भी है और गोल भी है किन्तु परस्पर विरोधी नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि दो धर्म ही अनेक कहलाते हैं। विवक्षा के अनुसार उन दोनों धर्मो का परस्पर समन्वय किया जाता है। व्याख्या को सुनकर आप बहुत प्रसन्न हुए कि अनेकान्त के अनेक शब्द का परस्पर विरोधी दो धर्म अर्थ करना संगत है। परस्पर विरोध नित्य अनित्य एक अनेक अर्थ होते हैं। ___ आप समन्तभद्र स्वामी के बहुत ही भक्त थे। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् की ओर से आपका अभिनन्दन करने के लिए हम और पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य मैनपुरी गये थे। उस समय वे वहां विद्यमान थे। सभा में उनकी सेवा में विद्वत् परिषद् की ओर से अभिनन्दन पत्र पढ़ा गया। अन्य विद्वानों ने भी उनकी सेवा में बहुत कुछ कहा-जब वे अपना वक्तव्य देने लगे तब कहते-कहते उनका गला भर आया और रुंधे गले से कहने लगे कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने हम लोगों का जो उपकार किया है वह भुलाया नहीं जा सकता। मुझे लगता है कि मैं पूर्व भव में उनके सम्पर्क में रहा हूं।
एक बार पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी जी महाराज ईसरी में विराजमान थे। प्रसंगवश मैं भी वहां उपस्थित था। वर्णीजी ने आग्रह कर सोनगढ़ के निश्चयनय प्रधान प्रवचनों को लक्ष्य कर मुख्तार जी से कहा कि-आप तो विद्वान् हैं इस झगड़े को सुलझाइये, तब मुख्तार जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि-जिनागम में निश्चय और व्यवहार, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों के माध्यम से व्याख्यान किया जाता है। इसी प्रसंग पर अमृतचन्द्र स्वामी का पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में रचित श्लोक सुनाया
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलम् शिष्यः॥
समयसार में आ. कुन्दकुन्द स्वामी ने जहां निश्चय की प्रधानता से कथन किया है वहां अनन्तर व्यवहारनय का भी कथन किया है। कुन्दकुन्द स्वामी की इस प्रवचन शैली पर आज तक किसी ने आक्षेप नहीं किया। परन्तु आज जो निश्चयनय की अपेक्षा जो