Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 258
________________ अनेकान्त/54/3-4 117. कहलाता है। 'तत्त्वार्थसूत्र में भी बताया है कि दान में विशेषता विधि द्रव्य, दाता, पात्र की विशेषता से आती है-"विधिद्रव्य दातृ विशेषात्तद्विशेष:-''। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में आचार्य समन्तभद्र ने अतिथिसंविभाग व्रत का उल्लेख 'वैय्यावृत्त्य' में किया है उनके अनुसार-गृहत्यागी, गुणनिधान तपोधन को अपना धर्मपालन करने के लिए उपचार और उपकार की अपेक्षा से रहित होकर विधिपूर्वक अपने विभव के अनुसार दान देने को वैय्यावृत्त्य कहा है। दानं वैय्यावृत्य धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन।। पात्र (अतिथि) तीन प्रकार के माने गये हैं- उत्तम, मध्यम और जघन्य उत्तम पात्र मुनि हैं, मध्यम पात्र आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक तथा प्रतिमाधारी व्रती श्रावक हैं और जघन्य पात्र अव्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक श्राविका कहलाते हैं। सामान्य साधर्मी जन भी जघन्यपात्रों की कोटि में आते है। 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका' में बताया है कि सत्पात्रेषु यथाशक्तिं दानं देयगृहस्थिते। दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थिता।' अर्थात् गृहस्थों को सत्पात्रों के लिए यथाशक्ति दान देना चाहिए। दानहीन गृहस्थ का जीवन निष्फल होता है। 'पुरूषार्थ सिद्वयुपाय' में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं किविधिना दातृगुणवता द्रव्य विशेषस्य जातरूपाय। स्वपरानुग्रह हेतोः कर्त्तव्योऽवश्यमतिथये भागः॥ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चन प्रणामं च। वाक्काय मनः शुद्धिरेषण शुद्धिश्च विधिमाहुः॥ ऐहिक फलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम्। अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारमिति हि दातृगुणाः॥

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