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अनेकान्त/54/3-4
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इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि दीन, हीन तथा शुभाशय वालों पर शस्त्रास्त्र जैसे अन्याय और हिंसा है वैसे ही अपने देश के कंटकों पर उसका न उठाना भी अन्याय और हिंसा है। अन्याय का हमेशा ही प्रतिरोध होना आवश्यक है अन्यथा वह वृद्धिंगत होकर भयावह रूप धारण कर लेता है। अन्याय पूर्ण स्थिति में न धर्म हो सकता है और न कर्म।
आजीविका के साधनों में न्याय का होना अपरिहार्य तत्त्व है। असि कर्म भी गृहस्थ धर्म है और गृहस्थ धर्म की पात्रता के लिए जिन गुणों को आवश्यक माना गया है उसमें न्यायोपात्त धन को प्रमुख स्थान दिया गया है। आन्यायोपार्जित धन-पिपासा अनेक अनर्थ का कारण बनती है। आज के आतंक का प्रधान कारण विवेक-हीनता के साथ-साथ अन्यायोपात्त धन भी है।
___-पं0 आशाधर-सागार धर्मामृत असि कर्मी निरर्थक-विवेकहीन हिंसा में प्रवृति नही करता 'निरर्थक वधत्यागेन श्रत्रिया वतिनो मता' जैसे उद्बोधन द्वारा आचार्यों ने निरर्थक वध त्याग को ही क्षत्रियों का अहिंसा व्रत माना है। तीर्थकर ऋषभदेव क्षत्रिय थे तथा सभी तीर्थकर क्षत्रिय ही हुए। इसके अतिरिक्त पुराणों में बारह चक्रवर्ती, नवनारायण, नव प्रतिनारायण, नव-बलभद्र त्रेसठशलाका पुरुष चौबीस कामदेव सभी-क्षत्रिय थे। सभी का आदर्श जीवन रहा है। विशेष रूप से तीर्थकर शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ ने तो आर्यखण्ड तथा पाँच खण्डों की विजय की थी। जैन पुराणों की विषयवस्तु युद्धों से भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि हरिवंशपुराण मे महाभारत युद्ध की घटना का भी वर्णन किया गया है। पद्मपुराण में युद्ध के लिए प्रस्थान करते हुए क्षत्रियों के लिए कहा गया है
सम्यग्दर्शन सम्पन्न शूरः कश्चिदणुव्रती। पृष्ठतो वीक्ष्यते पत्न्यः पुरस्त्रिदशकन्यया॥-73-168 किसी सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती सिपाही को पीछे से पत्नी और सामने से देव कन्या देख रही है। आपाततः स्वयं, स्वकुटुम्ब के धन, और आजीविका की रक्षार्थ की जाने वाली हिंसा, संकल्पी हिंसा में गर्भित नहीं है। प्रागैतिहासिक काल से जैसे- जैसे मनुष्य ने अपने ज्ञान का उपयोग नए-नए भौतिक साधनों के दोहन और उनके उपयोग में लगाया और भौतिक समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ है वैसे-वैसे उन उपलब्धियों की रक्षा के निमित्त उतने ही बड़े पैमाने पर रक्षा उपकरणों का आविष्कार और संग्रह भी किया है। योरोपीय अवधारणा है