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अनेकान्त/54/3-4
किया गया है। आदिपुराण में असि, मषि, कृषि, विद्या वाणिज्य और शिल्प ये छः कार्य प्रजा के आजीविका के कारणरूप बताये गए हैं। --
उपर्युक्त षड्कर्मो का उल्लेख प्रायः सभी पुराणों में प्राप्त होता है। कर्मभूमिज और भोगभूमिज योग्यता का अन्तर स्पष्ट करते हुए हरिवंश पुराण में स्पष्ट किया गया है कि जहाँ भोगभूमिज मनुष्य एक समान योग्यता के धारक होते हैं वही कर्मभूमिज मनुष्यों में न्यूनाधिक योग्यता पायी जाती है। भगवान् ऋषमदेव ने षड्कर्मों का प्रणयन करके सामाजिक व्यवस्था को जन्म दिया और भगवान् ऋषभदेव इसके प्रवर्तक हुए । यही कारण है कि आद्यस्तुतिकार आचार्य समन्तभद्र ने स्वंयभूस्तोत्र में उन्हें प्रजापति के रूप में स्मरण किया है। "प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा:- स्वयम्भू स्तोत्र
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(1) असिकर्म-आजीविका के साधनों में असिकर्म को प्रथम स्थान पर रखा गया है। असिवृत्ति का प्रधान उददेश्य सेवा के साथ-साथ शन्दितमय स्थिति का निर्माण करना है। प्रथमत: समाज में शन्ति व्यवस्था की स्थापना के लिए ही शस्त्र (असि) का प्रयोग किया जाना अभिप्रेत था। दूसरा कारण था दुर्बलों की रक्षा करना । असिकर्म के अन्तर्गत अन्याय का प्रतिकार और न्याय की स्थापना भी है। यही कारण है कि कालान्तर में श्रावकों के लिए ( 1 ) आरम्भी हिंसा (2) उद्योगी हिंसा ( 3 ) विरोधी हिंसा (4) संकल्पी हिसा में से मात्र संकल्पी हिंसा को त्यजनीय निरूपित किया गया है, वहीं विरोधी हिंसा को करणीय भी माना गया है। अन्याय के प्रतिकार और स्वजन, समाज, देश की रक्षार्थ उठाये जाने वाले शस्त्र अत्याचार - अनाचार के निराकरण के लिए होते हैं। इसीलिए उन्हें क्षत्रिय कहा गया है। क्षत्रिय विवेकी और शान्ति का निर्माता होता है। आचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक में कहा है
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्
यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीनकानानि शुभाशयेषु ॥
जो रणांगण में युद्ध करने को सन्मुख हो अथवा अपने देश के कंटक हो अथवा जो उसकी उन्नति मे बाधक हो, क्षत्रिय वीर उन्हीं के ऊपर शस्त्र उठाते हैं दीन-हीन और साधु-आशय वालों के प्रति नहीं।