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अनेकान्त/54/3-4
कि शक्तिशाली ही जीवित रहता है और प्रत्येक व्यक्ति की यही सोच और दिशा रहती है। यही कारण है कि योरोपीय देशों ने भौतिक-समृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया और सामरिक शस्त्रास्त्रों का जखीरा तैयार कर दिया है। इसके विपरीत जैन परम्परा-संस्कृति से प्रभावित भारतीय संस्कृति में प्रत्येक प्राणी को जीने का अधिकार है और वह स्वतन्त्र रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकता है। ___2 मषिकर्म-लेखन कला-द्रव्य अर्थात् रुपये पैसे का आय-व्यय आदि के लेखन में निपुण मसिकर्मी व्यक्ति को मसिकर्मी कहा गया है। मषी कर्मी को हम आज बैंकिग व्यवस्था के रूप में देखते है। आज विश्व की अर्थव्यवस्था का केन्द्रबिन्दु सम्मुन्नत एवं सुव्यवस्थित बैंकिग प्रणाली है। वस्तुविनिमय, द्रव्यविनिमय के रूप में मषीकर्मी देश की व्यवस्था को गति प्रदान करने में अहम् भूमिका का निर्वाह करते हैं। मपीकर्मी को भी अपनी साख का पूरा ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि साख पर ही उसकी प्रतिष्ठा और आजीविका चलती है। साख का आधार है सत्य-व्यवहार और सद्गृहस्थ मषीकर्मी कभी असत्य व्यवहार का आश्रय नही लेता। आचार्यों ने सद्गृहस्थ को मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान कूटलेख किया, न्यासापहार और साकार मन्त्र से बचने का निर्देश दिया है। ___ 3 षड्कर्म व्यवस्था का तीसरा सोपान है कृषि कर्म देश की समृद्वि और शन्ति की अवस्था चतुर्दिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। कृषि जीवन दायिनी कर्म है। भूमि को जोतना-बोना कृषि कर्म के अन्तर्गत आता है। हल, कुलि, दान्ती आदि से कृषि कर्म करने वाले को कृषिकर्मार्य कहा गया है। कृषि से आत्म निर्भरता और स्वाधीनता का भाव जाग्रत होता है। इसीलिए इसे उत्तम माना जाता है। उत्तम खती मध्यम व्यापार, की कहावत इस तथ्य को स्पष्ट करती है। कुरल काव्य में इस कर्म को सर्वोत्तम उद्यम माना गया है
नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते।
तत्सिद्धिश्च कृषेस्तस्मात् सुभिक्षेऽपि हिताय सा ॥ आदमी जहाँ चाहे घूमें, पर अन्त में अपने भोजन के लिए उसे हल का सहारा लेना ही पड़ता है। इसलिए अल्पव्ययी होने पर भी सर्वोत्तम उद्यम है। श्रमण जैन संस्कृति का तो उद्घोष ही है ऋषि बनो या कृषि करो।
4 विद्या कर्म- चौथा सोपान है विद्या कर्म इसके अन्तर्गत आलेख्य