Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 268
________________ अनेकान्त/54/3-4 127 (चित्र) गणित आदि 72 कलायें आती है। विद्या से ही व्यक्ति लोक में सम्मान प्राप्त करता है। विद्या ही कामधेनु-चिन्तामणि आदि है, वही मित्र, धन सम्पदा है ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को अक्षरविद्या और अंकविद्या का ज्ञान कराया था। वाड्.मय के बिना कला का विकास नही हो सकता इसलिए भगवान ने सर्वप्रथम वाड्.मय का उपदेश दिया था। ऋषभदेव ने भरतादि पुत्रों को भी अर्थशास्त्र नृत्यशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, चित्रकला, आदि की शिक्षा दी थी। इसी प्रकार बाहुबली के लिए कामनीति, आयुर्वेद, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा आदि का ज्ञान कराया था। इस प्रकार लोकोपयोगी सभी, शास्त्रों का ज्ञान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को कराया। राजवार्तिककार ने इसे विद्याकर्मी आर्य के नाम से अभिहित किया है। 5 शिल्पकर्म- धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि का कर्म शिल्पकर्म के अन्तर्गत आता है। प्रयोज्य उपकरणों का निर्माण करना ही शिल्पकर्म है। इन्हें शिल्पकार्य कहा गया है। 6 वाणिज्य कर्म- चन्दनादि सुगन्ध पदार्थो का, घी आदि का रस व घन्यादि, कपास, वस्त्र, मोती आदि के द्रव्यों का संग्रह करके यथावसर उनको समूल्य देने का कर्म करने वाले वाणिज्य कर्मार्य है। __ राजवार्तिककार ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य के आधार से सावध कर्म-आर्य के रूप में गणना की है। मुख्य से रूप से (1) सावध कार्य (2) अल्पसावध कार्य (3) असावध कार्य।' असि, मसि आदि कर्म करने वाले सावध कार्य (अविरति होने से), विरति, अविरति दोनों रूप हाने से श्रावक और श्राविकायें अल्प सावध कार्य कहे गए हैं तथा कर्मक्षय को उद्यत मुनि व्रत धारी संयत असावध कार्य कहे गए हैं। यद्यपि असि मसि कृषि आदि षट्कर्मो के अभाव में गृहस्थ जीवन चल नही सकता, फिर भी उसे कर कर्म से बचना चाहिए। सागार धर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है कि श्रावकों को प्राणियों को दु:ख देने वाले खर कर्म (कूरकर्म) कूर व्यापार अतिचार सहित छोड़ देना चाहिए। ये कर्म निम्नलिखित हैं (1)वनजीविका (2) अग्निजीविका (3) शकटजीविका (4) स्फोटजीविका (5) भाटजीविका (6) यन्त्रपीड़न (7) निर्लाछन (8) असतीपोष (9) सर:शोष (10) दवप्रद (11) विषवाणिज्य (12) लाक्षावाणिज्य (13) दन्तवाणिज्य (14) केशवाणिज्य (15) रसवाणिज्य

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