Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 257
________________ 116 अनेकान्त/54/3-4 अतिथि संविभाग व्रत'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार- “अतिथिये संविभागोऽतिथि संविभागः। स चतुर्विधः भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रय भेदात्। मोक्षार्थमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणामय शुद्धाय शुद्धचेतसा निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनाद्युपबृंहणानि टातव्यानि। औषधमपियोग्यमुपयोजनीयम्। प्रतिश्रयश्च परमधर्म श्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति। 'च' शब्दो वक्ष्यमाण गृहस्थधर्मसमुच्चयार्थः।" अर्थात् अतिथि के लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है। यह चार प्रकार का है- भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान। जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथि के लिए शुद्धमन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ाने वाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म का श्रद्धापूर्वक निवास स्थान भी देना चाहिए। सूत्र में 'च' शब्द है वह आगे कहे जाने वाले गृहस्थ धर्म के संग्रह करने के लिए दिया गया है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार तिविहे पत्तहि सया सद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी। दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहोहि संजुत्तो॥ सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे सव्वसिद्धि-सोक्खयरं। दाणं चउविहं पि य सत्वे दाणाण सारयरं।' अर्थात् श्रद्धा आदि गुणों से युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकार के पात्रों को दान की नौ विधियों के साथ स्वयं दान देता है उसे तीसरा (अतिथिसंविभाग) शिक्षा व्रत होता है। यह चार प्रकार का दान सब दानों में श्रेष्ठ है और सब सुखों का व सब सिद्धियों का करने वाला है। _ 'सागर धर्मामृत' के अनुसार व्रतमतिथि संविभागः पात्र विशेषाय विधि विशेषेण। द्रव्य विशेषवितरणं दात विशेषस्य फलं विशेषाय॥ अर्थात् जो विशेष दाता का विशेष फल के लिए, विशेष विधि के द्वारा, विशेष पात्र के लिए, विशेष द्रव्य का दान करना है वह अतिथि संविभाग व्रत

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