Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ अनेकान्त/54/3-4 करना चाहिये। ये सात शील हैं- तीन गुणव्रत (दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डत्यागव्रत) तथा चार शिक्षाव्रत ( सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभागव्रत) । 'अतिथिसंविभागव्रत' जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि अतिथि कौन है ? अतिथि 115 'सर्वार्थसिद्धि' में आचार्यपूज्यवाद स्वामी ने लिखा है कि“संयमविनाशयन्नततीत्यतिथिः। अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथिः अनियतकालागमन इत्यर्थः।” अर्थात् संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो आता है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं है उसे अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसके आने का कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं। 'सागार धर्मामृत' के अनुसार तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः || अर्थात् जिस महात्माने तिथि, पर्व, उत्सव आदि सब का त्याग कर दिया है अर्थात् अमुक पर्व या तिथि में भोजन नहीं करना, ऐसे निमय का त्याग कर दिया है, उसको अतिथि कहते हैं शेष व्यक्तियों को अभ्यागत कहते हैं। 11 चारित्रपाहुड़ टीका के अनुसार - " न विद्यते तिथि: प्रतिपदादिका यस्य' सोऽतिथिः । अथवा संयमलाभार्थमतति गच्छति उदद्ण्डचर्या करोतीत्यतिथिर्यति: ।' जिसको प्रतिपदा आदिक तिथि न हों वह अतिथि है अथवा संयम पालनार्थ जो विहार करता है, जाता है, उद्दण्डचर्या करता है ऐसा यति अतिथि है। अमितगति श्रावकाचार के अनुसार “ अततिः स्वयंमेव गृहं संयमविराधयन्ननाहूतः । यः सोऽतिथिरुछिष्टः शब्दार्थ विचक्षणे साधुः ॥1-95 अर्थात् जो संयमी बिना बुलाये ही संयम की विराधना किये बिना गृहस्थ के घर आता है वह अतिथि कहलाता है।

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