Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 254
________________ अनेकान्त/54/3-4 113 है द्विनियत्व ( दुनिया शब्द इसी से बना हैं) इसे ही परमार्थ सत्य मानना अनेकांत की विशेषता है। सत्य की एक विशेषता यह है, बल्कि नियम, कि दुनिया में कुछ भी एक सा नहीं है सर्वथा समान भी नहीं और असमान भी नहीं। अस्तित्व विपरीत का जोड़ है। एक तरह से देखें तो सब कुछ सब कुछ के विरोध में है। मगर अगर थोड़ी तटस्थतता आ जाए तो कहीं विरोध नही दीखता । नास्तिक भी यहां, उतना ही भयभीत हैं जितना आस्तिक। हर सदाशयी व्यक्ति कभी न कभी संशय से होकर गुजरता ही है और हर नास्तिक भी अक्सर घबड़ाकर प्रार्थना करता दिखाई पड़ जाता है। आदमी की हताशा का कारण ही यह है कि वह अनेकांत के नियम को नहीं जानता । वह जब स्वस्थ होता है तो यह स्वीकार ही नहीं करता कि वह कभी भी विषाणु की गिरफ्त में आ सकता है। वह यह भूल जाता है कि कोई भी पर्याय संप्रत्यय शाश्वत नहीं है। सब पर्याय बदलती रहती हैं। आज परिस्थिति यदि प्रतिकूल है तो कल अनुकूल भी हो जाएगी। ईश्वर पर विश्वास करने वाले भी उतने ही विक्षिप्त होते हैं जितना उस पर अविश्वास करने वाले । इसलिए कि अविश्वास करने के पहले, विरोध करने के पहले, वह उपादान, वह अवधारणा भी तो चाहिए जिसके विरोध में हम निकल पड़े हैं। सर्वथा विरोध, यानि सर्वथा अविरोध, सर्वथा सहमति अथवा सर्वथा असहमति ये केवल विपर्यय हैं। अगर सब दक्षिणपंथी हो जाए तो वाम कहां जाएगा। वाम के कारण ही तो दक्षिणपंथ का अस्तित्व है। दोनों के अस्तित्व के लिए दोनों का होना जरूरी है। पता नहीं ऐसा क्यों मान लिया गया है कि अनेकांत दृष्टि केवल तत्ववाद तक ही सीमित हैं जिंदगी से उसका कुछ लेना-देना नहीं। जबकि जीवन स्वयं भी तो तत्व ही है, थोड़े से रसायनों का घोल फिर इतनी मारामारी क्यों ? - डी०-203 साकेत, नई दिल्ली-110017

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