Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 253
________________ 112 अनेकान्त/54/3-4 यही है कि हम जाने कुछ और, और कह कुछ और जाते हैं। इसी तरह सुनने वाला भी नहीं सुन पाता है कि जो वह जानता है। यही स्याद्वाद की जड़ है। स्याद्वाद यानी अनेकांतात्मकता। स्याद्वाद, का आधार है अपेक्षा। अपेक्षा वहा होती है जहां हम चाहें कुछ और जबकि वास्तविकता कुछ और हो। जाहिर है तब वहां विरोध होगा। विरोध वहीं होगा जहां एक पक्ष का आग्रह 'अ' हो और उभयपक्ष का 'ब'। विरोध तब नहीं होगा जब दोनों अपने-अपने पक्ष के प्रति कुछ कुछ और जानने के इच्छुक हों। डॉ. देवराज ने लिखा है:- 'स्याद्वाद का अर्थ है शायदवाद। अपने अतिरंजित रूप में स्याद्वाद संदेहवाद का भाई है। 'स्याद्वाद का उद्गम अनेकांत वस्तु है। जो वस्तु सत् है वही असत् भी है। मगर जिस रूप से सत् है उसी रूप से असत् नहीं है। जैनाचार्यों के आधार पर वस्तु-तत्व का प्रतिपादन करने वाला वाक्य संशयात्मक हो ही नहीं सकता। भगवान महावीर ने इसी स्याद्वादी पद्धति के आधार पर अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। उदाहरण के लिए: द्रव्य-दृष्टि से सांत है। क्षेत्र-दृष्टि से सांत है। किंतु काल-दृष्टि से अनंत है! भाव दृष्टि से अनंत है! एक अन्य स्थल पर, प्रश्न किए जाने के बाद तीर्थकर महावीर स्पष्ट करते हैं- 'जीव शाश्वत है। वह कभी भी नहीं था, नहीं है और नहीं होगा- ऐसा नहीं होता। वह था, है और आगे भी होगा, रहेगा। इसलिए वह ध्रुव, नित्य, अक्षय, शाश्वत और अव्यय है।' आगे भगवान महावीर कहते हैं जीव अशाश्वत है- वह नैरयिक होकर तिर्यंच हो जाता है एक दिन देव योनि में आ जाता है फिर भव-बाधाओं को पार कर, आत्मपरिष्कार करता हुआ एक दिन सिद्ध हो जाता है-संसार बंधन से छूट जाता है। क्योंकि उसका अवस्था-चक्र बदलता रहता है इसलिए जीव अशाश्वत भी है। सिद्ध होने के बाद शाश्वत। अनेकांतवाद के अनुसार, यह जो चेतना और अचेतन का मिला जुला रूप

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