Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 260
________________ अनेकान्त/54/3-4 119 है वह लोभवाला कैस नहीं है अर्थात् अवश्य ही लोभी है। जो अपने लिये बनाये गये भोजन को मुनि के लिए देता है, आरति और विषाद से विमुक्त हैं और लोभ जिसका शिथिल हो रहा है ऐसे गृहस्थ का भावयुक्त त्याग (दान) अहिंसा स्वरूप है अर्थात् अतिथि के लिए उपर्युक्त नवधाभक्ति से दिया गया दान अहिंसा स्वरूप ही है। यह अतिथि संविभागवत नामक चौथा शिक्षाव्रत है। ' यशस्तिलक चम्पू' में दाता के सातगुण इस रूप में भी बताये हैंश्रद्वा तुष्टिर्भक्ति विज्ञानमलुब्धता क्षमाशक्तिः। यत्रैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति।।' अर्थात् जिस दाता में श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलोभी-पना, क्षमा और शक्ति ये सात गुण पाये जाते हैं, वह दाता प्रशंसा के योग्य होता हैं। जैसे ही वह अपने सामने से किन्हीं मुनिराज को आहार मुद्रा में निकलते देखता है तो बड़े हर्ष के साथ निवेदन करता है कि हे स्वामी, नमोस्तु! नमोस्तु! आइए, आइए, ठहरिए, ठहरिए, हमारा आहार-जल शुद्ध है। यदि मुनिराज उसकी प्रार्थना सुनकर ठहर जाते हैं तो वह उनकी तीन प्रदक्षिणा देता है, वह अत्यन्त विनय के साथ उन्हें अपने घर में प्रवेश करने का निवेदन करता है, उसकी उक्त, किया को प्रतिग्रह या पड़गाहन कहते है। गृहप्रवेश होने के बाद उन्हे उच्चासन पर विराजमान कर सर्वप्रथम प्रासुक जल से उनके चरणों को धोकर अहोभाव से अपने मस्तक पर लगाता है तत्पश्चात्, जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलरूप अष्ट द्रव्यों से उनकी पूजा करता है। उसके बाद वह उन्हें प्रणाम कर निवेदन करता है कि हे स्वाभी हमारा मन शुद्ध है, शरीर से भी हम शुद्ध है। हमारे द्वारा निर्मित आहार जल भी अत्यन्त शुद्ध है, कृपा कर भोजन ग्रहण कीजिए। इस प्रकार निवेदन करने पर जब मुनिराज आहार ग्रहण करते हैं तब 'सोला' की स्थिति बनती है। ' सोला' में नवधाभक्ति एंव दाता के श्रद्धा आदि सात गुणों को समाहित किया गया है। 'चारित्रसार' में आया है कि प्रतिग्रहोच्च स्थाने च पाद क्षालनमर्चनम्। प्रणामो योगशुद्धिश्च ते नव॥

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