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अनेकान्त/54/3-4
जैसे गोपी (दधि) मंथन की रस्सी को एक ओर से खींचती है व दूसरी ओर से ढीला छोड़ती है वैसे ही जैनी नीति (अनेकान्त) का (विचार) मंथन है और यही वजह है कि अन्त में जीत उसी की होती है।
आचार्य महाप्रज्ञ का निष्कर्ष है कि "महावीर ने निश्चय और व्यवहार नय की यात्रा में बाहरी दर्शन और अन्त दर्शन की जटिल समस्या का समाधान किया-कुन्दकुन्द ने भी निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर इस समस्या का समाधान किया। एक प्रसिद्ध गाथा है निर्युक्त साहित्य में जिसे अमृतचन्द्र ने समयसार की टीका में भी उद्धृत किया है :
जड़ जिणमय पवजह मा ववहार णिच्छयं मुयह। ववहारस्स उच्छे ये तित्शुच्छे वो हवई वस्सं।। यदि जिनमार्ग पर चलना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों में से किसी को मत छोड़ो। व्यवहार का उच्छेद होने पर तीर्थ का उच्छेद हो जाएगा-व्यवहार और निश्चय ये दो आँखें हैं। दोनों से देखना ही पूर्ण देखना है। "आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय की बात बहुत कही, अध्यात्म को समझने पर बहुत बल दिया परन्तु निश्चय के साथ-साथ व्यवहार को भी बराबर निभाया। उन्होंने व्यवहार को छोड़ा नहीं। निश्चय की आँख है सच्चाई को जानने के लिए और व्यवहार को आँख है जीवन की यात्रा को चलाने के लिए। जीवन की यात्रा को छोड़कर व्यवहार को छोड़कर सच्चाई को पाने की बात आकाशीय उड़ान है। जीवन ही नहीं तो सच्चाई मिलेगी कैसे? दोनों बाते साथ-साथ चलती हैं।" आचार्य महाप्रज्ञ का तो यह भी मंतव्य है कि "बहुत विद्वानों ने आचार्य कुन्दकुन्द को निश्चय नय की सीमा में आबद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका दृष्टिकोण अनेकान्त की सीमा का अतिक्रमण करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को अपनी-अपनी सीमा में अवकाश दिया है। केवल सूक्ष्म पर्याय ही सत्य नहीं है, स्थूल पर्याय भी सत्य है। क्या सत्य के एक पहलू को नकार कर असत्य को निमंत्रण नहीं दिया जा रहा। इस विषय पर विमर्श आवश्यक है।" तो फिर भला कैसे कहा जाए कि व्यवहार भूतार्थ नहीं है, सत्यार्थ नहीं हैं, भूत (प्राणी) के अर्थ (हित) में नहीं है। कटारिया ठीक ही कते हैं कि व्यवहार भी भूतार्थ है,