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अनेकान्त/54/3-4
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यतः मुनिजन अन्य विविध नियमों में बंधे रहते हैं, अत: उनके व्रतों की रक्षा तो अन्यथा भी हो सकती है। परन्तु श्रावकों के अणुव्रत की रक्षा के लिए रात्रिभोजन-निषेध तो अत्यन्त आवश्यक है। जिनदेव मुनि के अतिरिक्त अन्य अधिकांश आचार्यों ने भी स्वीकार किया है कि रात्रिभुक्ति परिहार से मुख्यतः अहिंसाव्रत का पालन होता है।26 रात्रिभोजन-निषेध से अहिंसा की निवृत्ति कैसे होती है, इस प्रसंग में जैन आचार्यों ने दो तर्क दिये हैं-प्रथम तो यह है कि सूर्य के प्रकाश के अभाव में भोजनकर्ता यह नहीं देख पाता कि भोजन में अभक्ष्य पदार्थ पड़ गये हैं अथवा जीव-जन्तुओं का प्रवेश हो गया है। फलतः अनजाने ही उनके द्वारा भोजन में प्रविष्ट हो गये कीट-पतंगों की हिंसा हो जाती है। यदि प्रकाश के लिए दीपक आदि का प्रयोग किया जाता है, तो सर्वत्र अन्धकार की स्थिति में दीपक पर कीट-पतंगों का आगमन अनायास ही अत्यधिक होता है, वर्षा ऋतु में तो वह और भी अधिक बढ़ जाता है। इस प्रकार दीपक-प्रकाश में हिंसा के बढ़ने की ही सम्भावना है, घटने की नहीं।28 रात्रिभोजन-परिहार से हिंसा की निवृत्ति का दूसरा कारण है रागादि मनोभावों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास। भोजन के प्रति राग के कारण ही मनुष्य दिन-रात की परवाह किये बिना चाहे जब चरता रहता है। रात्रिभोजन-निषेध का व्रत लेने के अनन्तर वह (व्रती) सामान्यत: 34 घड़ी अर्थात् 14 घंटे भोजन के प्रति अपने राग को नियंत्रित करने का प्रयास करता ही है। अत: रागादि पर विजय पाने से अहिंसा की रक्षा अनायास होने लगती है।9 भोजन विषयक राग पर नियंत्रण न होने पर सामान्य मनुष्य अन्न आदि भोज्य पदार्थो के साथ ही मांसाहार के प्रति भी भगवान् हो जाता है और उस स्थिति में अहिंसा की साध ना कैसे चल सकती है। इस प्रकार रात्रिभोजन-परिहार श्रावक को हिंसाओं की सम्भावनाओं से सुरक्षित रखता है।
रात्रिभोजन-परिहार की महत्ता देखते हुए जैन आचार्यों ने इस पर बहुत अधिक बल दिया है। महामुनि अमितगति के अनुसार जो व्यक्ति दिन-रात चरता रहता है अर्थात् रात्रिभोजन-परिहार का व्रत नहीं करता, वह सींग, पूंछ और खुर रहित पशु ही है।' आचार्य वसुनन्दि के अनुसार इस व्रत का पालन न करने से सर्वत्र परिभव और चतुर्दिक संसार-सागर के दु:खों की पीड़ा भोगनी पड़ती है। मुनि पूज्यपाद के अनुसार संसार में जो लोग पुत्र, पति आदि