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अनेकान्त/54/3-4
नेमिचन्द्र ने कहा है
णिकम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदोसिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता। - द्रव्यसंग्रह,14
जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक है और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, वे सिद्ध है और उर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद-व्यय से युक्त हैं। ___ जीव के संसारी और मुक्त दोनों विशेषण तर्कसंगत है। हां, जैन दर्शन में कुछ जीव अभव्य होते हैं, जिनको मुक्ति नहीं मिलती।।
माण्डलिक का कहना है कि जीव निरन्तर गतिशील है वह कहीं भी नहीं ठहरता, चलता ही रहता है। जैन दर्शन क उसे उर्ध्वगमन वाला मानकर भी वहीं तक गमन करने वाला मानता है, जहां तक धर्म द्रव्य है। वास्तविक स्वभाव उर्ध्वगमन है। अशुद्ध दशा में कर्म जिधर ले जाते हैं, वहां जाता है, किन्तु कर्मरहित जीव उर्ध्वगमन करता है और लोक के अग्रभाग में ठहर जाता है। इसके आगे द्रव्य की गति नही होती है इसलिए जीव उर्ध्वगामी होकर भी निरन्तर उर्ध्वगामी नहीं है, यह जैन दर्शन की मान्यता है।
जीव द्रव्य के लिए प्रयुक्त सभी विशेषण सार्थक हैं तद् तद् दर्शनों की मान्यताओं के प्रतिपक्ष के रूप में उल्लिखित हैं।
यह जीवद्रव्य दो प्रकार के हैं 1. संसारी 2. मुक्त। जो अपने संस्कारों के कारण नाना योनियों में शरीरों को धारण कर जन्म-मरण रूप से संसरण करते हैं, वे संसारी हैं। जो मन, वचन और कायरूप दण्ड अर्थात योगों से रहित हैं, जिसे किसी प्रकार का आलम्बन नहीं, जो रागरहित, द्वेषरहित, मूढ़तारहित और भयरहित हैं वही आत्मा सिद्धात्मा हैं।
इन्द्रिय की अपेक्षा से जीव के भेद- एकेन्द्रिय जीव के केवल स्पर्शनेन्द्रिय होती है।" पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय से पांच प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय है। दो, तीन, चार और पंचन्द्रिय वाले सभी जीव त्रस होते हैं। दो इन्द्रिय के स्पर्शन और रसना इन्द्रिय होती है जैसे लट