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अनेकान्त/54/3-4
भारतीय दर्शनों में आत्मा के आकार के सम्बन्ध में मतान्तर प्रचलित है। न्याय वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि आत्मा का अनेकत्व स्वीकार करते हुए आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापक है उसी प्रकार आत्मा (जीव) भी सर्वव्यापक है। उपनिषद् में आत्मा के सर्वगत और सर्वव्यापक होने का उल्लेख है। अगुंष्ठमात्र तथा अणुमात्र होने का भी निर्देश है।
जैन दर्शन में कहा गया है कि आत्मा प्रदेशों का दीपक के प्रकाश की भांति संकोच और विस्तार होने से वह (जीव) अपने छोटे-बड़े शरीर के परिमाण का हो जाता है। अर्थात् हाथी के शरीर में उसी जीव के प्रदेशों का विस्तार और चींटी के शरीर में संकोच हो जाता है।
जह पउमरायरणं खित्त खीरे पभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासदि॥ -पंचास्तिकाय, ३३
-जैसे दूध में डाली हुई पद्मरागमणि उसे अपने रंग से प्रकाशित कर देती है, वैसे ही देह में रहने वाला आत्मा भी अपनी देहमात्र को अपने रूप से प्रकाशित कर देता है। अर्थात् वह स्वदेह में ही व्यापक है देह के बाहर नहीं, इसीलिए जीव स्वदेह परिमाण वाला है। यह स्थिति समुद्घात दशा के अतिरिक्त समय की है। समुद्घात में तो उसके प्रदेश शरीर के बाहर भी फैल जाते हैं। यहां तक कि सारे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। इसीलिए जैन दर्शन में आत्मा (जीव) को कचित् व्यापक तथा कथचिंत् अव्यापक माना गया है।
सांख्य दर्शन में आत्मा के कर्तृत्व को स्वीकार न कर भोक्तृत्व को स्वीकार किया है। कर्तृत्व तो केवल प्रकृति में है, पुरुष (जीव) निष्क्रिय है। जैन दर्शन के अनुसार जीव (आत्मा) व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों, अशुद्ध निश्चय नय से चेतन कर्मों का और शुद्ध निश्चय नय से अपने ज्ञानदर्शन आदि शुद्ध भावों का कर्ता है। कत्तासुहासुहाणं कम्माणं फलभोयओ जम्हा। जीवो तप्फलभोया भोया सेसा ण कत्तारा॥ -वसुनन्दि श्रावकाचार 35 __ जीव अपने शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता है क्योंकि वही उनके फल