Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 246
________________ अनेकान्त/54/3-4 105 संसारी है, सिद्ध है, और स्वभाव से उर्ध्वगमन करने वाला है। चार्वाक आत्मा का स्वतन्त्र न मानकर शरीर को आत्मा मानता है। जीव सदा जीता है, वह अमर है- कभी नहीं मरता है। उसका वास्तविक प्राण चेतना है जो उसी की तरह अनादि और अनन्त है। उसके व्यावहारिक प्राण भी होते हैं, जो पर्याय के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां, मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु से दस प्राण संज्ञी पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, नारकियों में होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के नव प्राण, चार इन्द्रिय वाले के आठ, तीन इन्द्रिय वाले के सात, दो इन्द्रिय वाले के छ: और एकेन्द्रिय के चार प्राण होते हैं। योनियों के चैतन्य नष्ट नहीं होता। अतएव शरीर की अपेक्षा जीव (आत्मा) भौतिक है और चेतना की अपेक्षा अभौतिक है। __ नैयायिक और वैशेषिक आत्मा को ज्ञान का आधार मानते हैं। जैन दर्शन में आत्मा को आधार और ज्ञान को आधेय नहीं माना गया, किन्तु जीव (आत्मा) ज्ञानस्वभाव वाला माना गया है जैसे कि अग्नि ऊष्णस्वभावात्मक है। अपने से सर्वथा भिन्न ज्ञान से आत्मा कभी ज्ञानी नहीं हो सकता है। भाट्टमतानुयायी मीमांसक और चार्वाक आत्मा को मूर्त पदार्थ मानते हैं, किन्तु जैन दर्शन की मान्यता है कि पुद्गल में जो गुण विद्यमान है, आत्मा उनसे रहित है जैसा कि कहा गया है-- अरसरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं।' -जीव को रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, स्पर्शरहित, शब्दरहित, पुद्गल रूप लिंग (हेतु) द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य, जिसके किसी खास आकार का निर्देश नहीं किया जा सकता ऐसा और चेतना गुण वाला जानो। इस प्रकार यह अमूर्त है तो अनादिकाल से कर्मो से बंधा हुआ होने के कारण व्यवहार दृष्टि से उसे कथंचित् मूर्त भी कहा जा सकता है। शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा मूर्त। यदि उसे सर्वथा मूर्त माना जायेगा, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। पुद्गल और उसमें भेद नहीं रहेगा। अतएव कचित् की दृष्टि से निर्धारित किया गया है।

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