Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 213
________________ 72 अनेकान्त/54/3-4 और उस काल में भोजन अथवा समस्त पुण्यकर्मों का त्याग करना चाहिए।" इस्लाम में रमजान के महीने में रोजा रखने की परम्परा है, जिसमें पूरे महीने भर दिन में भोजन नहीं किया जाता और सूर्यास्त के बाद रात्रि में तथा सूर्योदय से कुछ समय पूर्व तक भोजन ग्रहण करने का नियम है। जैन परम्परा में इस पर कठोर कटाक्ष किया गया है। उनकी दृष्टि से ऐसा काना मानो जल को विपरीत दिशा में अर्थात् ऊपर की ओर प्रवाहित करना है। चिन्तामणि को छोड़कर खली (मिट्टी) का टुकड़ा उठा लेना है। अथवा समस्त सुख-साध न देने वाले कल्पवृक्ष को अग्नि में समर्पित कर देना है । " रात्रि भोजन निषेध के प्रसंग में गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए दो स्थितियों की सम्भावना की गयी है। प्रथम यह कि स्वास्थ्यरक्षा की कामना से चिकित्सक के निर्देश पर प्रतिदिन सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना अथवा रात्रि मे प्रकाश आदि की व्यवस्था का सर्वथा अभाव होने से सुविधा की दृष्टि से सन्ध्या से पूर्व भोजन करना दूसरी स्थिति है कि दोनों सन्ध्या समयों को सम्मिलित करते हुए रात्रि में भोजन त्याग का व्रत लेकर रात्रि में भोजन न करना। इन दोनों स्थितियों मे व्रतपूर्वक रात्रि - भोजन त्याग ही पुण्य फलदायी होता है, विवशतापूर्वक रात्रिभोजन-निवृत्ति का कोई पुण्यफल नहीं मिलता। 22 रात्रिभोजन त्याग में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय चारों प्रकार के भोज्य पदार्थो का उपयोग सम्मिलित किया जाता है। 23 - मुनि अभ्रदेव ने रात्रिभुक्ति अर्थात् रात्रिभोजन निषेध को रात्रिकाल मे चतुर्विध ( खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय) भोज्य के त्याग तक ही सीमित नही रखा है। उन्होंने परस्त्रीविमुखता, दिवा-मैथुन- निषेध एवं स्वदार सन्तुष्टि को भी इसकी सीमा में सम्मिलित करना चाहा है। यद्यपि इन्हें (परस्त्रीविमुखता आदि को) ब्रह्मचर्य अणुव्रत के मध्य गिनना अधिक उचित है। रात्रि -- भोजन क्यों न किया जाए, इस संदर्भ में श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में एक ही तर्क दिया गया है, वह है व्रत- रक्षा | भव्य धर्मोपदेश उपासकाध्ययन के लेखक महामुनि जिनदेव के अनुसार रात्रिभोजन के परिहार से सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और मुनिजन दोनों के ही समस्त व्रतों की रक्षा होती है।

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