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अनेकान्त/54/3-4
प्राप्ति भी इस व्रत के पालन से ही मिलती है, यह भी जैन आचार्य स्वीकार करते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार आज लोक में जो स्त्रियां बन्धु-बान्धवों से समादृत, पुत्रों से वन्दित, सर्वविध वस्त्राभूषणें से भूषित, व्याधियों से वर्जित, श्रीमती, लज्जावती, बुद्धिमती, धर्मपरायणा और सदा सुख भोगने वाली हैं, जिन्हें पति से बहुविध सम्मान और प्रेम प्राप्त है, यह सब सौभाग्य रात्रिभोजन-परिहार-व्रत के पालन से ही उनको मिलता है, सह समझना चाहिए। रात्रिभोजन-परिहार की महिमा के प्रसंग में जैन आचार्यों को मान्यता है कि इस व्रत के पालन से न केवल प्रतिमास एक पक्ष पर्यन्त अर्थात् जीवन के आधे भाग में व्रत-उपवास करने का फल प्राप्त होता है, अपितु बहुविध व्रत-दान आदि असंख्य पुण्यों का फल उन्हें मिलता है। एक स्थान पर महामुनि अमितगति यह भी कहते हैं कि इस महिमाशाली व्रत के पालन से उत्पन्न पुण्यराशि का वर्णन करना, सामान्य मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है, उसका वर्णन तो जिननाथ ही कर सकते हैं
रात्रिभोजनविमोचिनां गुणा ये भवन्ति भवभागिनां परे। तानपास्य जिननाथमीषते वक्तुमत्र न परे जगत्त्रये।। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-परम्परा में रात्रि-भोजनपरिहार की महिमा का बारम्बार गान किया गया है और इस व्रत को अहिंसा आदि व्रतो के पालन में अनिवार्य मानते हुए उनके समान ही समादृत किया गया है।
सन्दर्भ 1. पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतम् शृणुयाम शरदःशतम प्रव्रवाम् शरदः शतम्
अदीनाः स्याम शरदः शतम्, भूयश्च शरद:शतात्। यजुर्वेद 36/24 2. उपधाहि परोहेतुः दुःख दु:खाश्रयप्रदः।
त्यागः सर्वोपधानां च सर्वदु:खव्यापोहकः।। (उपधा भावदोष) यस्त्वग्नि कल्यानर्थान ज्ञो ज्ञात्वा तेभ्यो निवर्तते। अनारम्भादसंयोगस्तं दु:खं नोपतिष्ठते।। धीधृतिस्मृति विभ्रष्टः कर्मयत्कुरुतेऽशुभम्।