Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 235
________________ अनेकान्त/54/3-4 — इस प्रकार आशाधरजी ने अपने समय तक प्रचलित सभी मतों का अष्टमूल गुण के सन्दर्भ में उल्लेख कर सबका समाहार किया है। इन अष्टमूल गुणों का पालन करने वाला व्यक्ति ही जिनधर्म सुनने के योग्य होता है। इन गुणों का पालन जिन परम्परानुसार करने वाले तथा मिथ्यात्वकुल में उत्पन्न हो करके भी जो इन गुणों के द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं, वे सब समान ही होते हैं, उनमें कोई अनतर नहीं होता है। मांस और अन्न दोनों प्राणी के अंग होने पर भी मांस त्याज्य क्यों है? ____ कुछ लोगों का कहना है कि जिस प्रकार मांस प्राणी का अंग है, उसी प्रकार अन्न भी प्राणी का अंग है, अत: दोनों के खाने में दोष है। ऐसे व्यक्तियों के प्रति आशाधरजी ने एक सुन्दर दृष्टान्त दिया है प्राण्यङगत्वे समेऽप्यननं भोज्यं मांसं न धार्मिकौ। भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैजीयैवनाम्बिका॥ सा.ध. 2/10 प्राणी के अंग की अपेक्षा मांस और अन्न में समानता होते हुए भी धर्मात्मा के द्वारा अन्न खाने योग्य है, किन्तु मांस खाने योग्य नहीं है, क्योंकि स्त्रीत्व रूप सामान्य धर्म की अपेक्षा स्त्री और माता में समानता होने पर भी पुरुषों के द्वारा स्त्री भोग्य है, माता भोग्य नहीं है। शूद्र भी श्रावकधर्म धारण करने का अधिकारी है। उपकरण, आचार और शरीर की पवित्रता से युक्त शूद्र भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान जिनधर्म सुनने का अधिकारी है, क्योंकि जाति से हीन भी आत्मा कालादि लब्धि के आने पर श्रावक धर्म की आराधना करने वाला होता है। गृहस्थ को चिकित्साशाला, अन्न तथा जल का वितरण करने का स्थान तथा वाटिकादि बनवाने का विधान पाक्षिक श्रावक चिकित्साशाला के समान दया के विषयभूत दु:खी प्राणियों का उपकार करने की इच्छा से अन्न और जल के वितरण करने के स्थान को भी बनवाने तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिए बगीचा आदि का बनवाना भी दोषदायक नहीं है।

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