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अनेकान्त/54/3-4
जैन परम्परा में यह स्वीकार किया गया है कि देव, ऋषि, पितर, दैत्य और दानव इनके आहार का समय प्रायः अलग-अलग है। देवगण पूर्वाह्न में आहार ग्रहण करते हैं, ऋषिगण मध्याह्न में और पितर अपराह्न में। सन्ध्या समय अथवा उसके बाद तो दैत्य-दानव ही आहार लेते हैं। अत: उत्तम लोग देवताओं के सदृश केवल एक बार पूर्वाह्न में भोजन लेते हैं। मध्यम जन दिन में किसी समय एक या अनेक बार भोजन ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु सायाह्न और रात्रि में तो अधम जन ही भोजन ग्रहण करते हैं।
जैन परम्परा के अनुसार प्रात:काल सूर्योदय के उपरान्त दो घड़ी तक और सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व दो घड़ी तक का समय सन्ध्या तक सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय पर्यन्त का समय रात्रि माना जाता है।''
रात्रि-भोजन-निषेध के क्रम में अहिंसाव्रत पालन को मूलबिन्दु के रूप में रखा गया है और इसी कारण कहीं-कहीं उसे (रात्रिभोजन को) मांसभोजन के समान निन्दित कहा गया है, तो कहीं रात्रिभोजन के समय हिंसा की सम्भावना का अनुभव किया गया है। समाज में कुछ लोग भोजन के प्रसंग में दिन और रात्रि में कोई अन्तर नहीं समझते। आचार्य अमितगति के अनुसार ऐसे लोग मानो प्रकाश और अन्धकार का भी अन्तर नहीं समझते।” ब्राह्मण परम्परा में शिवभक्त त्रयोदशी तिथि में प्रदोषव्रत करते हैं। इस व्रत में दिनभर उपवास करके रात्रि के प्रथम प्रहर (प्रदोषकाल) में भोजन-ग्रहण करते है और इससे अतिशय पुण्य की आशा करते हैं। इस प्रसंग में अमितगति की मान्यता है कि उनका यह कार्य (व्रत) पुण्य नहीं, पाप देने वाला है। उनका यह कार्य ऐसा है, मानों वृक्ष लगाकर उसकी वृद्धि के लिए उसके चारों ओर अग्नि प्रज्वलित की जा रही हो।"
आचार्य पद्मनन्दि मुनि सूर्यास्त के बाद के समय की तुलना उस सृतक से करते हैं, जिसे प्रत्येक परिवार में किसी स्वजन की मृत्यु के बाद माना जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किसी स्वजन की मृत्यु हो जाने पर परिवार में सूतक-काल मानकर कोई भी पुण्य कार्य नहीं किये जाते, यहाँ तक कि दूसरों को भोजन भी नहीं कराया जाता, उसी प्रकार लोक-लोकान्तर के स्वामी दीनानाथ के अस्तंगत होने पर भी सूतक अर्थात् अपुण्यकाल मानना चाहिए