Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 206
________________ अनेकान्त/54/3-4 और चतुर्थ पंक्ति भक्तामर की है। मुनि रत्नसिंह दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि हैं क्योंकि उन्होंने 48 पद्यों की समस्यापूर्ति की है। इनका समय क्या है अभी निश्चित नहीं है। इसका पहला 'प्राणप्रियं नृप सुता' से प्रारम्भ होता है इसीलिये इसे 'प्राणप्रिय' काव्य कहा गया है। पं. नाथूराम प्रेमी ने इसके तीन पद्य जैन साहित्य और इतिहास में दिये हैं जिन्हें हम साभार यहां दे रहे हैं। प्राणप्रियं नृपसुता किलं रैक्ताद्रि श्रंगाग्रसंस्थितमवोचदिति प्रगल्भ्यम् । अस्मादृशामुदितनील-वियोगरूपेऽ वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ तत्किं वदामि रजनीसमये समेत्य चन्द्रांशवो मम तनुं परितः स्पृशन्ति । दूरे धवे सति विभो परदारशक्तान् कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ पूर्वे मया सह विवाहकृते सभागाः मुक्तिस्त्रियास्त्वमधुना च समक्षतोऽसि । चेच्चञ्चलं तव मनोऽपि वभूव हा तत् किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ 65 अन्तिम 49वें पद्य में मुनि रत्नसिंह ने अपना परिचय देते हुये लिखा है कि- 'सिंह संघ के अनुयायी धर्मसिंह के चरण कमलों में भ्रमर के समान अनुरक्त मुनि रत्नसिंह ने यह नेमिनाथ का वर्णन करने वाला काव्य बनाया श्रीसिंहसंघसविनेयक - धर्मसिंह पादारबिन्दमधुलिङमुनिरत्नसिंहः । भक्तामरस्तुति चतुर्थपदं गृहीत्वा, श्री नेमिवर्णनमिदं विदधे कवित्वम् ॥4

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