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अनेकान्त/54/3-4
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श्वेताम्बर परम्परा में चार प्रातिहार्यों वाले चार श्लोक कम कर दिये गये हैं।' इन चार श्लोकों की रचना कर दी। जबकि अड़तालीसवें काव्य में काव्य समाप्ति की सूचना स्पष्ट है।
प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री मिलापचन्द्र कटारिया के पास उपलब्ध गुटकों में उक्त चार श्लोकों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के चार श्लोक उल्लिखित हैं। यही चार श्लोक जैन मित्र फाल्गुन सुदी 6 वीर सं. 2486 के अंक में छपे थे। श्लोक निम्न हैं - ‘यः संस्तुवे गुणभृतां सुमनो विभाति,
__ यः तस्करा विलयतां विबुधाः स्तुवन्ति। आनन्दकन्द हृदयाम्बुजकोशदेशे,
भव्या व्रजन्ति किल या भर देवताभिः॥1॥ इत्थं जिनेश्वर सुकीर्तयतां जिनोति,
न्यायेन राजसुखवस्तुगुणा स्तुवन्ति। प्रारम्भभार भवतो अपरापरां या,
सा साक्षणी शुभवशो प्रणमामि भक्त्या॥2॥ नानाविधं प्रभुगुणं गुणरत्न गुण्या
रामा रमन्ति सुरसुन्दर सौम्यमूर्तिः। धर्मार्थकाम मुनयो गिरिहेमरत्नाः
उध्यापदो प्रभुगुणं विभवं भवन्तु॥3॥ कर्णो स्तुवेन नभवानभवत्यधीश
यस्य स्वयं सुरगुरु प्रणतोसि भक्त्या शर्मार्धानोक यशसा मुनिपारंगा
मायागतो जिनयतिः प्रथमो जिनेशाः॥4॥ पर ये भी मूलग्रन्थाकार कृत नहीं है, क्योंकि 48वें पद्य में ही स्तोत्र का फल बताकर समाप्त कर दिया गया है। ये अतिरिक्त श्लोक भी, जो बाद में बनाये गये, असंगत प्रतीत होते हैं।'