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अनेकान्त /54/3-4
सत्यार्थ है, भूत (प्राणी) के हित में हैं। मेरा विनम्र विचार तो इससे कुछ थोड़ा सा आगे है - व्यवहार भूतार्थ है और इस कारण वह भी शुद्ध ही है।
इसके अलावा कुन्दकुन्द एक आचार्य हैं और उनका समय प्राभृत दरअसल व्यवहार से निश्चय की यात्रा कराना चाहता है। हालांकि वे हम से असंख्य गुणा अधिक आत्मान्वेषी मनीषी विद्वान थे फिर भी हमें समझाने में मानव सम्भव भाषाजन्य चूक कर सकते थे। स्वयं उन्हें इस बात का अहसास था। हमें भी छल रहित होकर भूलचूक का सुधार कर उन्हें समझना चाहिए। उन्होंने क्या लिखा या कहा उसमें सदियों में लिपिकारों व टीकाकारों ने कहीं चूक की ही न हो, ऐसा समझना दिमाग की खिड़कियों पर ताला डालना है- -शुद्ध वायु से वंचित होना है। सतत चिंतन को अवरुद्ध करना है।
आत्मानुभूमि का व्यवहार की भाषा में वर्णन का एक अच्छा उदाहरण देना चाहता हूँ। ममल पाहुड़ की सोलह गाथाओं के "संसर्ग फूलना" (73) में आत्मदर्शी सन्त तारण स्वामी जो कहते हैं, जरा उसका एक अंश सुनिए
परम परम
जिनं परं सु समयं पर्म सिवं सासुतं परम परम पदं पदर्थ ममलं अर्थ ति अर्थ समं कमल कमल सुभाव विदंति सु समयं अचष्यं अचष्ये बुधैः अचष्ये केवल दर्स दिस्टि ममलं न्यानं च चरनं समं बारम्बार वियारनं सु समयं पूजं च पूर्व धुवं पिच्छं सुद्ध न्यान दिस्टि ममलं तारन तु तरनं सुयं
स्व समय परमोत्तम जिन है, वह शिव है, शाश्वत है। उसका अर्थ समभाव है और वह परम पद परम निर्मल है। कमल के समान उसका प्रफुल्लित स्वभाव है। वह समय (आत्मा) स्वयं को जानता है। वह इन्द्रियातीत है किन्तु बुधजन द्वारा देखा गया है। वे केवल दर्शन है, बाधा रहित निर्मल दृष्टि है। वह ज्ञान है, वह चरित्र है और सम्यक् है। वह शुद्ध समय बार-बार विचारने के लायक है, वह पूज्य है, ध्रुव अवस्था में पूजनीय है। पीछे शुद्ध ज्ञान दृष्टि से उस निर्मल आत्मा का अनुभव होता है। वह स्वयं ही तारन तरन है। आत्मा अपने आप सूर्य समान प्रकाशित है, शुद्धात्मा परमात्मा है, ज्ञान- ज्ञान में ही शुद्ध निर्मल रूप आनन्द मग्न है। मुक्ति पथ में स्थित है।