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अनेकान्त/54/3-4
स्व- पर कल्याणकारी आदर्श नागरिक संहिता की भावना है जो जीवन में अनुकरणीय है, उपादेय है।
किसी जीव को पीड़ित न करूँ और झूठ न बोलूँ। संतोषरूपी अमृत का पान करते हुए किसी के धन एवं पर- स्त्री पर मोहित न होऊँ ( पद- 3 ) गर्व और क्रोध न करूँ, दूसरों की प्रगति पर ईर्ष्या न करूँ। निष्कपट सत्य व्यवहार करूँ। यथाशक्य दूसरों का उपकार करूँ ( पद - 4)। सभी जीवों पर मैत्री अनुकम्पा का भाव रहे। दीन-दुखी जीवों के दुख-निवारण हेतु हृदय में निरंतर करुणा रहे। दुर्जन-पापी जीवों पर साम्यभाव रखूँ और घृणा न करूँ ( पद - 5)। गुणीजनों से प्रेम करूँ। उनके दोष न देखूँ और यथाशक्य सेवा करूँ । परोपकारियों के प्रति कृतघ्न न बनूँ और न उनका विरोध करूँ ( पद - 6 ) 1 मैं न्याय मार्ग पर चलूँ। बुरा हो या भला, धन आये या जाये, मृत्यु अभी हो या लाख वर्ष बाद, कितना ही भय या लालच मिले किन्तु किसी भी स्थिति में, न्याय मार्ग से विचलित नहीं होऊँ ( पद - 7 ) | यह कर्तव्य बोध की पराकाष्ठा है, जो प्रजातंत्र की सफलता का सूत्र है। न्यायच्युत राज्य-व्यवस्था संत्रासदायी होती है जो अशांति को जन्म देती है।
सुख में प्रफुल्लित और दुख में भयभीत न होऊँ। पर्वत, नदी आदि से भयभत न होऊँ । इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट - संयोग में सहनशीलता / समत्व भाव रखूँ। यही भावना निरंतर बनी रहे ( पद - 8 ) | मोह - रहित स्थिति में उक्त आचरण से कर्मबन्ध रुकेगा और कर्मनिर्जरा होगी।
धर्माचरण से विश्वकल्याण एवं राष्ट्र की उन्नति :
पद 9 एवं 11 में धर्माचरण से विश्व के जीवों के कल्याण एवं राष्ट्रों की उन्नति की भावना व्यक्त की है। यह "वसुधैव कुटुम्बकम्" का प्रयोगिक रूप
है।
जगत के सभी जीव सुखी रहें, भयभीत न हों और बैर - पाप- -अभिमान छोड़ कर नित्य नये मंगल गान करें। घर-घर में धर्म की चर्चा हो और निद्य-पाप अशक्य हो जावें। सभी जीव अपने स्वभाव रूप ज्ञान- चारित्र में वृद्धि करें (पद- 9 ) |
मोहरूप अज्ञान का नाश हो और विश्व में परस्पर प्रेम का प्रसार हो। कोई