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अनेकान्त/54/3-4
कुन्दकुन्द भारती (1994)-निश्चयनय के विषय को छोड़कर विद्वान व्यवहार के द्वारा प्रवृत्ति करते हैं किन्तु (शुद्धात्मभूत) परमार्थ के आश्रित यतियों के ही कर्मो का क्षय होता है। (याने कि विद्वान् लोग सही नही हैं)।
रूपचन्द कटारिया-विद्वान् लोग निश्चयार्थ को छोड़कर व्यवहार में प्रवर्तन नहीं करते हैं क्योंकि परमार्थ के आश्रित यतियों के ही कर्म क्षय होता है। ववहारेण को ववहारे ण ऐसे पढ़ा है।
ज्ञानसागरजी-ने अर्थ किया है कि निश्चय नय को छोड़कर वही लोग व्यवहार में प्रवृत्ति करते हैं जो प्रमादी हैं क्योंकि कर्म का क्षय तो उन्हीं यतीश्वरों के होता है जो परमार्थ भूत स्वरूप में तल्लीन होते हैं। परन्तु ज्ञानसागर जी ने विशेषार्थ में स्पष्ट किया कि आगम शैली कहती है कि व्यवहार में प्रवृत्ति किए बिना निश्चय को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञानसागर जी ने दोनों तरह से अर्थ किया है। एक को अध्यात्म शैली व दूसरे को आगम शैली से कहना बताया है। दरअसल व्यवहार और निश्चयनय दोनों ही अध्यात्म के रास्ते हैं। केवल कहने की शैली अलग-अलग है। मेरे ख्याल में कोई नय असत्य नहीं हो सकता। जो असत्य है वह नय ही नहीं है। इस बात का समर्थन सन्मति तर्क प्रकरण की गाथा 1/28 से भी होता है कि
णियय वयणिज्ज सच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा।
ते उण ण दिट्ठसमओ विहयइ सच्चे अलीए वा।। वे सभी नय अपने अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं पर जब वे दूसरे नयों का निराकरण करने लगते हैं तब वे मिथ्या हो जाते हैं (अनेकान्त रूप) समय के ज्ञाता यह भेद नहीं करते कि यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है अलीक है।
अत: इस गाथा का सही अर्थ है कि जो निश्चयनय को छोड़कर व्यवहार में प्रवृत्त करते हैं वे समझदार तो हैं किन्तु जिनको कर्म क्षय इष्ट हैं उन्हें आत्मा का आश्रय लेना ही होगा। इस प्रकार एक गाथा और है
एवं ववहार णओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।