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अनेकान्त/54-2
उस संदर्भ पर जहां नव लक्षणा भक्ति इस प्रकार बताई गई है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन की ओर)
इस दान तीर्थ प्रवर्तन में तो अर्चना अष्ट द्रव्य से करना ऐसा भी नहीं लिखा है। इस वृत्तान्त से पहले भगवान् के जन्माभिषेक के बाद सुरेन्द्रों ने उनकी पूजा गन्ध', धूप, अक्षत', कुसुम', उदक व फलों से याने छह द्रव्यों से, भगवान की दीक्षा के उपरान्त उनके बेटे भरत ने अष्ट द्रव्यों से भगवान की पूजा की थी। लेकिन केवलज्ञान होने के बाद इन्द्रों ने अमृत', गन्ध', माला', धूप' और अक्षत याने पांच द्रव्यों से पूजा की थी। देखिए आदि पुराण 17/251-252, 23/201 व 23/106। लगता है समय पाकर पूजा का अर्थ अष्ट द्रव्यों से ही पूजा करना रूढ़ तो हो गया किन्तु दरअसल पूजा में हम भी जल', चंदन (धूप में भी) चावल' (अक्षत व पुष्प) गिरी नारियल (नैवेद्य व दीप) और फल ये पांच द्रव्य ही चढ़ाते हैं। भगवान् ने अपनी संतान को सारा ज्ञान-विज्ञान शास्त्र सिखाया ही था
और आहार दान के पहले अष्ट द्रव्य पूजा सहित विधि का ज्ञान भी सिखाया ही होगा किन्तु सम्राट् भरत तक उसको भूल गए। भरत ने तो श्रेयांस कुमार से पूछा भी कि आपके भगवान् का अभिप्राय किस प्रकार जाना यह बताइए, आप तो आज हमारे लिए भगवान् के समान पूज्य हो (भगवानिव पूज्योऽसि कुरुराज त्वमद्य नः। आदि पुराण 20/127)।
खैर, यह तो हुई तीर्थकर मुनिराज की बात। अब देखना यह है कि क्या अन्य साधुओं को आहार दान के समय उनकी अप्ट द्रव्य पूजा का कोई विधान है और वह क्या महिला साधुओं को लागू नहीं किया जा सकता। इतना तो अवश्य है कि कितनी ही आचार संहिताओं के अनुकूल विधि अपनाइए पूरे आठों ही असली द्रव्य चढ़ाइए। पांच आश्चर्यो में से कोई होने वाला नहीं है।
गृहस्थ के जो कर्तव्य हैं, वे यों बताए हैं - देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः दानं चेति गृहस्थानाम् षट् कर्माणि दिने-दिने आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु विनतिः। पद्म. पञ्च. 6/7