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अनेकान्त / 54-2
"निष्पक्ष भाव" से किए गए बतलाते हैं। मानों उन्होंने बड़ी भारी खोज कर डाली है। कोषकार मोनियर विलियम्स ने तो अपने संस्कृत कोष में दर्ज किया है कि मुनि शब्द पुरुष मुनि ओर महिला मुनि दोनों ही के लिए प्रयुक्त हुआ है। मेरे विचार में तो णमोकार मंत्र में 'लोए सव्व साहूणं' केवल पुरुष साधुओं तक सीमित करना भी उचित नहीं है; इन शब्दों में लोक की सारी महिला साधु (साध्वियां) भी समाहित हैं। स्वयं आचार्य वीरसेन ने साहूणं की कई व्याख्याएं की हैं उनमें सबसे अच्छी है- अनंत ज्ञानादि शुद्धात्म स्वरूपं साधन्तीति साधवः ।
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खैर, यह तो दिगम्बर विद्वान् मानते ही हैं कि जिनवाणी का अधिकांश लोप हो चुका है और जो कुछ बचा है वह है द्वितीय पूर्व अग्रायणी का अंश षट् खण्डागम के रूप में और पांचवें ज्ञानप्रवाद का अंश कषाय पाहुड़ के रूप में । ऐसी सूरत में सच तो यह है कि आरातीय आचार्यो द्वारा रचित शास्त्र आगम की कोटि में नहीं आते और उन्हें आगम तुल्य ही क्या आगम ही कह कर हम अपनी आगम हानि की पूर्ति कर रहे हैं। इसलिए पुराणों का भी महत्व बढ़ जाता है और पुराण भी प्रमाण का काम करते हैं पुराणों में इतिहास कम व कल्पना की अधिक मिलावट के साथ-साथ द्रव्य, लोक रचना और सदाचरण के नियम भी समाविष्ट हैं। इसलिए उनमें लिखित आचरण की संहिताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती । दरअसल यहीं से तो शुरू होती है आहार दान व पंचाश्चर्यो की घटनाएं।
साधुओं की दीक्षा का प्रसंग आदिपुराण 4/152 में सबसे पहले राजा अतिबल के दीक्षा ग्रहण करने का है परन्तु वहां पर उसके आहार दान ग्रहण के बारे में कुछ नहीं लिखा गया। इसके बाद वज्रजंघ के द्वारा आकाश गामी मुनिद्वय दमकर और सागर सेन को आहार देने के बारे में यों लिखा है
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श्रद्धादि गुण संपत्या गुणवद्भ्यां विशुद्धि भाक् । दत्वा विधिवदाहारं पञ्चाश्चर्यमवाप सः ॥ 8/173
वज्रजंघ ने विधिवत् आहार देकर पञ्चाश्चर्यो को प्राप्त किया । याने रत्न', पुष्प, जल', की बरसातें शीतल वायु और अहो दानं की ध्वनि पांच आश्चर्य हुए। परन्तु क्या विधि अपनाई थी यह नहीं बताया।
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