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अनेकान्त/54/3-4
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विविध दशाओं का विवेचन है। अतः कर्मसिद्धान्त का ग्रन्थ होने के कारण इसमें अलंकार, रूपक तथा दृष्टान्तों का दुर्लभ होना स्वाभाविक है, फिर भी कहीं-कहीं जयधवलाकार ने मंगलाचरणों तथा कहीं-कहीं अपने विषय को समझाने के लिए रूपक और दृष्टान्तों को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, इस प्रकार है
वह
जयधवला टीका ( भाग - 1 ) के प्रारम्भ में आचार्य वीरसेन ने मंगलाचरण के रूप में कहा है
तित्थयरा चउबीस वि केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा । परियंतु सिवसरूपा तिहुणसिर सेहरा मज्झ ॥२॥
अर्थात् जिन्होंने अपने केवलज्ञान से समस्त पदार्थो का साक्षात्कार कर लिया, जो शिवस्वरूप है और तीनों लोकों के अग्रभाग में विराजमान होने के कारण अथवा तीनों लोकों के शलाका पुरुषों में श्रेष्ठ होने के कारण त्रिभुवन के सिर पर शेखर रूप हैं, ऐसे चौबीसों तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों। यहाँ चौबीस तीर्थंकरों को शिवस्वरूप कहा है।
गणधर देव को समुद्र सदृश बतलाते हुए आचार्य कहते हैं- जो सम्यग्दर्शन आदि अनेक गुणरूपी रत्नों से भरे हुए हैं और श्रुतज्ञान रूपी अमित जल समुदाय से गंभीर हैं, जिनकी विशालता का पार नहीं मिलता और जो अनेक नयों के उत्तरोत्तर भेद रूपी उन्नत तरंगों से युक्त हैं- ऐसे गणधरदेव रूपी समुद्र को तुम लोग नमस्कार करो' ।
यहाँ आचार्य ने कहा है कि जैसे समुद्र में रत्न, गहरी जलराशि तथा तरंगे होती हैं उसी प्रकार गणधरदेव में भी अनेक गुणरूपी रत्न, श्रुतज्ञान रूपी अथाह ज्ञान है तथा उनका यह श्रुतज्ञान भी नयभंग रूपी तरंगों से युक्त है।
आगे संसार को बेल की उपमा देते हुए कहा है कि जैसे बेल (लता) का आदि, मध्य और अन्त होता है, उसकी पोरें भी स्वल्प होती हैं उसी प्रकार संसार भी ऐसी बेल है जो सन्तानक्रम से अनादि काल से चली आ रही है - ऐसी संसाररूपी बेल को जिन जिनदेव ने छेद ( समाप्त कर ) दिया, उन्हें मैं