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अनेकान्त/54/3-4
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राया खु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया। एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं।
जीवोत्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।। जिनवर स्वयं व सूत्र भी (सूत्र का प्रयोग श्वेताम्बर आगम साहित्य में अधिक होता है) जो उपदेश देते हैं वह व्यवहार दर्शन है वर्ना अध्यवसानादि भावों को लिए यह कैसे कहते कि ये जीव ही हैं। यद्यपि दरअसल जीव तो एक है परन्तु अध्यवसानादि परभावों को जीव कहना यह व्यवहार की भाषा है, वैसे ही जैसे फौज को निकलते देखकर यह कहा जाए कि राजा ही जा रहा है, यानि सारी फौज को ही राजा कह देना या यदि कोई पथिक मार्ग पर लूट लिया जाए, तो कहना कि मार्ग लुट गया है अथवा युद्ध तो जीता पोद्धाओं ने पर यह कहना कि राजा ने युद्ध जीता या यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार यों कहना ही राजा प्रजा में अच्छाई बुराई पैदा करता है। यह सब व्यवहार की, बोलचाल की, मुहावरे की भाषा है। इसी प्रकार जीव के लिए यह कहना कि वह पर्याप्त है, अपर्याप्त है, सूक्ष्म है, बादर है, यह व्यवहार की (अनेकान्त की) भाषा है यद्यपि यह सब देह के लिए कहा गया है परन्तु प्रकारान्तर से जीव के लिए ही कहा गया है
पज्जा पन्जता जे सुहुमा बादरा य जे जीवा देहस्स जीव सण्णा सूत्ते ववहारदो उत्ता। आगे जो यह कहा कि
ववहारेण दु आदा करेदि घट पट रथादि दव्वाणि।
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि। व्यवहार में तो ऐसा देखा ही जाता है कि आत्मा (मानव) घट पट रथ आदि द्रव्यों को बनाता है (यहाँ द्रव्यों से मतलब पारिभाषिक द्रव्यों से नहीं है बल्कि केवल पर्यायों से, वस्तुओं से है) वैसे ही आत्मा, विविध इन्द्रियों, ज्ञानावरणादि कर्मों और नो कर्म का कर्ता है, यह कथन व्यवहार का कथन है, परन्तु यह भी तो स्वयं जिनवर के ही वचन हैं