Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 176
________________ अनेकान्त/54/3-4 करता है और ऐसे जीव अनन्त है, तो इसका नतीजा होता है संसार। आगे चिन्तन किया किया, तो पाया कि अजीव संसार अनन्त परमाणुओं से बना है जिसमें ऐसे परमाणु हैं जो दुःख-सुख, जीवन-मरण आदि के कारण हैं, किन्तु उनको नाम दिया कर्म। अब जब मानव ने यह जान लिया तो फिर जरूरी हो गया यह पता करना कि इनसे कैसे पीछा छुड़ाया जाए तो जन्म हुआ उस चिन्तन समूह का जिसे कहते हैं दर्शन यानि जो कुछ देखा, सोचा, समझा व अनुभव किया उसका रिकार्ड। जब उस दर्शन का केन्द्र बिन्दु बना जीव तो उसे कहा गया जीवन-दर्शन और जब जीव को आत्मा नाम दिया तो जन्मा अध्यात्म दर्शन। क्यों किया यह सब इसलिए कि चिन्तक स्वयं तो समझे ही, परन्तु अपने साथियों को भी समझाए व समझाने लगा तो बना शास्त्र और धीरे-ध रे उसका इतना अम्बार लगा कि जरूरी हो गया उसका वर्गीकरण-एक वर्ग का नाम रखा “प्राभृत" परन्तु इस सब को जानना सबके बस की बात नहीं तो कोशिश हुई उसका भी सार अंश ढूंढने की और यों सामने आया अध्यात्म का सार और उसे नाम मिला समयसार! कुन्दकुन्द ने जो समयसार (समय प्राभृत) लिखा। उस समयसार का सार यह है कि आत्मा एक शुद्ध द्रव्य है जो केवल ज्ञाता है। कर्ता नहीं भोक्ता नहीं, दृष्टा भी नहीं। अध्यात्मोपरिनषद् भी यही कहता है अकर्ताऽहमभोक्ताऽहमविकारोऽहममव्यययी। शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहम् केवलोऽहम्. सदाशिवः।। रचानुभूत्या स्वयं ज्ञात्वा स्वमात्मानं खण्डितम्। स सिद्धः सुसुखं तिष्ठन् निर्विकल्पात्मनाऽऽत्मनि।। मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं भोक्ता नहीं हूँ, मैं विकार रहित हूँ, मैं अव्यय हूँ, मैं शुद्ध बुद्ध स्वरूप हूँ, मैं केवली सदा शिव हूँ। जो अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखण्डित जानकर निर्विकार आत्मा द्वारा आत्मा में स्थित हो, वह सुखी व सिद्ध है। यह सब बस अनुभव की वस्तु है। इसे शब्दों में वर्णन करना अत्यन्त कठिन काम है, परन्तु परस्पर सम्प्रेषण के लिए यह जरूरी है कुछ संकेतों का, कुछ ध्वनियों का प्रयोग हो जिनको कहते हैं अक्षर, शब्द। इन शब्दों का समूह है पद और पदों से बनती है भाषा और भाषा द्वारा

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