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अनेकान्त /54/3-4
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जयधवला टीका में प्रयुक्त कतिपय रूपक और दृष्टान्त
डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी
जब हम शौरसेनी प्राकृत आगम साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं, तब सर्वप्रथम हमारी दृष्टि आचार्य गुणधर रचित " कसायपाहुड सुत्त" पर जाती है। यह विक्रमपूर्व प्रथमशती की रचना है। यह उपलब्ध जैन साहित्य में कर्मसिद्धान्त विषयक प्राचीनतम परम्परा का एक महान् अद्वितीय ग्रन्थ माना जाता है। यह आचारांग आदि बारह अंग आगमों के अन्तर्गत बारहवें "दृष्टिवाद" नामक अंग के अन्तर्गत माना गया है, परन्तु दृष्टिवाद के अन्तर्गत पूर्वगत अर्थात् चौदह पूर्वो में ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व में दसवीं वस्तु के अन्तर्गत " पाहुड" की बीस अर्थाधिकारों में तीसरे पाहुड का नाम पेज्जदांस पाहुड कहा है। यह बहुत ही विशाल ग्रन्थ था। जिसे साररूप में आचार्य गुणधर ने "गाथासूत्र" शैली मे 233 गाथाओं में निबद्ध किया। इन गाथासूत्रों को अनन्त अर्थ से गर्भित कहा गया है । इसीलिए इनके स्पष्टीकरण हेतु महाकम्म पवड पाहुड के महान् विशेषज्ञ आचार्य यतिवृषभ ने इस पर छह हजार श्लोक प्रमाण चुण्णिसुत्तों की रचना की। इन चुण्णिसुत्तों के स्पष्टीकरण हेतु उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण 'उच्चारणा" नामक वृत्ति का निर्माण किया। इसके बाद शामकुण्डाचार्य, तुम्बलूराचार्य, बप्पदेवाचार्य द्वारा वृहद् टीकायें लिखीं गईं। इन टीकाओं के उल्लेख मात्र तो प्राप्त हैं किन्तु ये महान् टीकायें आज हमें उपलब्ध नहीं हैं।
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जयधवला टीका- यह सत्य है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार सभी वस्तुओं में निरन्तर परिवर्तन होता ही रहता है, अतः युग के अनुसार लोगों की स्मरण और ग्रहण शक्ति में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। अतः सिद्धान्त के विषयों की गहनता और भाषा की कठिनाई ने इस महान् ज्ञान की