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अनेकान्त/54-2
प्रवचन हो रहे हैं उनमें एकान्तवाद की झलक मिलती है इसी कारण विरोध हो रहा है, जन सामान्य तो विशेष प्रतिभा नहीं रखते इसलिए सब सुनते रहते हैं पर विशेष विद्वान् एकान्तवाद का विरोध करते हैं। __ आदरणीय मुख्तार जी का मुझ पर विशेष प्रेम था और इसके कारण कई दुरूह स्तोत्र आदि की व्याख्या करने के लिए मुझे लिखते थे। "मरुदेवि स्वप्नावलि" ऐसा ही स्तोत्र है जिसका अर्थ लिखने के लिए मुझे पत्र लिखा। मैंने संस्कृत टिप्पण देकर उसका हिन्दी अर्थ कर उनके पास भेजा जिसे उन्होंने "अनेकान्त' पत्रिका में प्रकाशित किया। "स्तुतिविद्या" का अनुवाद प्रेरणाकर मुझसे करवाया और उसे अपनी प्रस्तावना के साथ प्रकाशित किया।
एक बार "अनेकान्त" पत्रिका के मुखपृष्ठ पर दधि विलोडने वाली गोपी का चित्र प्रकाशित किया। जिसे देखकर मैंने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ के अंत में आये
एकनाकर्षन्ति श्लथयन्ति वस्तुतत्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।
इस श्लोक के आधार पर "जैनी नीति'' नामक एक हिन्दी कविता लिखकर उनके पास भेजी थी जिसे उन्होंने प्रसन्नता के साथ "अनेकान्त" पत्रिका में प्रकाशित किया था। मेरी संस्कृत कविताओं को भी अनेकान्त में बड़े प्रेम से प्रकाशित करते थे। फलस्वरूप मेरे द्वारा लिखित सामायिक पाठ जिसमें विधिपूर्वक छह अंगों का वर्णन था आपने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक अनेकान्त में छापा था। साथ ही लिखा था कि मुझे गौरव है आज के विद्वान् भी पूर्वाचार्यों की तरह संस्कृत में रचना करते हैं। आपने युक्त्यनुशासन स्वयम्भूस्तोत्र आदि कुछ ग्रन्थों का अनुवाद कर पृथक्-पृथक् पुस्तकों में छपाया है, आपके द्वारा लिखित मेरी भावना का जितना आदर देश में हुआ है उतना शायद ही किसी दूसरी कृति का हुआ हो। आचार्य महावीर परम्परा ग्रन्थ में आपके विचारों से कई स्थल सुलझे प्रतीत होते हैं।
आपके विचारों को पढ़कर आपके अगाध ज्ञान का स्वयं प्रमाण मिल जाता है। आप विद्वानों के आदर के लिए सदैव आगे रहते थे। इतने उच्चकोटि के विद्वान् होने के पश्चात् भी आप सदैव लघु बना रहना उचित समझते थे। वास्तव में आज आप जैसे विद्वानों का समागम बड़ा ही दुर्लभ है।
- श्री वर्णी दि. जैन गुरुकुल पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर
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