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अनेकान्त/54-2
पं. पन्नालाल जी "साहित्याचार्य' के कतिपय प्रेरक संस्मरण ( उनकी लेखनी से)
- संकलनकर्ता-ब्र. विवेक जैन 'विचार' स्वर्गीय पं. जुगलकिशोर जी मुख्यार, जैन श्रुत के अद्वितीय विद्वान थे। स्व सम्पादित ग्रन्थों के ऊपर उनकी लिखित प्रस्तावनाएं सर्वमान्य होती थीं, आप इतिहास के अप्रतिम विद्वान् थे। माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित संस्कृत टीकायुक्त रत्नकरण्डक श्रावकाचार के ऊपर आपने जो ऐतिहासिक प्रस्तावना लिखी है, वह परवर्ती विद्वानों के लिए मार्गदर्शक हुई है।
आपने जिनवाणी के प्रकाशनार्थ सरसावा में वीरसेवा मंदिर की स्थापना की और उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। आपके दर्शन का मुझे कई बार सौभाग्य मिला है।
सन् 1944-45 की बात होगी। सामाजिक निमन्त्रण पर मैं सहारनपुर के वार्षिक रथोत्सव में शामिल हुआ था, उस समय वहां स्व. पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य भी विद्यमान थे। उत्सव के बाद मैं अपने सहपाठी मित्र पं. परमानन्द जी शास्त्री से मिलने के लिये सरसावा गया था, सन्ध्या के समय हम दोनों मित्र कहीं घूमने चले गये, जब रात को 9 बजे वापिस आये तब श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार बोले कहां चले गये थे? दोनों मित्र! हम आपकी प्रतीक्षा में बैठे हैं। विषय था रत्नकरण्डक श्रावकाचार को "मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्ध पर्यङ्कबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञा" श्लोक की टीका में मैंने समय का अर्थकाल न लिखकर आचार लिखा था। "समयाशपथाचार काल--सिद्धान्त-सविद!" इत्यमरः। इस कोश के अनुसार समय का अर्थ आचार भी होता है। सामायिक करने वाले श्रावक को सामायिक में बैठने के पहले अपने केश तथा वस्त्रों को सम्हालकर बैठना चाहिये जिससे बीच में आकुलता न हो। बैठकर या खड़े होकर सामायिक की जा सकती है। हाथ की मुट्ठियां भी बंधी हों फैली न हों।