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अनेकान्त/54-2 SoSoccccccccc
इन कर्तव्यों में पूजा तो केवल देव की बताई है गुरुओं की उपासना व विनति। आशाधर ने भी 'देवं सेवेत् गुरून्' सा.ध. 2/23 में गुरुओं की सेवा करना ऐसा लिखा है। फिर यह भी जरूर लिखा कि
पात्रागमविधि-द्रव्य-देश-कालानतिक्रमात दानं देय गृहस्थेन तपश्चर्या च शक्तितः। सा.ध. 2/48
अर्थात् गृहस्थों को पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश व काल के अनुसार दान देना चाहिए और शक्ति के अनुसार तपस्या करनी चाहिए। विधि से मतलब नवपुण्य (नवधा भक्ति) लिया गया लगता है। जो नवपुण्य ऊपर बताए हैं उनमें से मेरे विचार में स्वागत, उच्चासन, पादप्रक्षालन, नमस्कार और शुद्धियों के बारे में तो किसी भी पण्डित या गृहस्थ को क्या एतराज हो सकता है, साधु चाहे पुरुष हो या महिला। मेरा ख्याल है कि तनाजा इस बात पर है कि पुरुष साधु ही अष्ट द्रव्य पूजा के अधिकारी हैं क्योंकि साधु (मुनि) की श्रेणी में वही आते हैं जो 'तन नगन' हैं और इसलिए सवस्त्र साधु या साध्वी अष्ट द्रव्य पूजा के अधिकारी नहीं हैं। यदि सवाल सामग्री की संख्या का ही है तो सात या नौ (9) द्रव्य चढ़ाकर हल किया जा सकता है। लगता है बेनाड़ा जी आर्यिकाओं की पूजा के ही विरोधी हैं। मेरे हिसाब से तो उससे भी बढ़कर सवाल है नारी का जैन-शासन व्यवस्था में स्थान व बराबर के सम्मान का। भिक्षा प्रकरण में मनुस्मृति 6/58 के इस वचन से मैं तो सहमत हूंअभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः। अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बद्धयते। --पूजापूर्वक मिलने वाली भिक्षा की सर्वदा निंदा (स्वीकार न) करें क्येकि पूजा पूर्वक होने वाली भिक्षा प्राप्ति से शीघ्र मुक्त होने वाला यति भी बंध जाता है। कारण साफ है कि ऐसी भिक्षा में दानी के साथ लगाव पैदा हो जाता है और यति के वृथा अहं का पोषण होता है। पूजा और भोजन दान की मांगें अटपटी लगी ही होंगी मनु को।
पं. आशाधर निर्ग्रन्थता के बारे में और साधु-साध्वी की समानता के बारे में लिखते हैं -