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अनेकान्त/54-2
वह जिसे परावाणी या समाधि-भाषा कहा जाता है लगभग उसी उन्मनी स्थिति में अपने यहां आदिकवि से लेकर मीरा, रवीन्द्रनाथ तक उत्कृष्ट रचना हुई है। स्वयं वेद व्यास की कृति श्रीमद्भागवत भी इसी समाधि भाषा में है इन्हीं भरत का स्मरण करते हुए वेद व्यास लिखते हैं'येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुणाश्रया'
श्रेष्ठ गुणों में आश्रयभूत, महागोयीग भरत अपने सौ भाइयों में ज्येष्ठ थे उन्हीं के नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहते हैं।
हम पहले कह आए हैं कि ऋषभ इस देश की दोनों परम्पराओं ऋषि परम्परा एवं मुनि परम्परा दोनों में समानरूप से आदरणीय हैं। जिन अनुशासन का पालन करने वाले यदि उन्हें आदिनाथ कहते हैं तो कश्मीर के शैवदर्शन में उन्हें ही शिवरूप में माना गया है।
एकनाथी परम्परा में एक जगह यहां तक लिखा है : ऋषभ के पुत्र भरत ऐसे थे जिनकी कीर्ति सारे संसार में आश्चर्यजनक रूप मे फैली हुई थी। भरत सर्वपूज्य हैं। कार्य आरंभ करते समय भरत जी का नाम स्मरण किया जाता है।
श्रीमद्भागवत से प्रेरित होकर अनेक वैष्णव कवियों ने, मां सरस्वती की साधना की है। बल्लभाचार्य के शिष्य, महाकवि सूरदास ने श्रीमद्भागवत का प्रभाव स्वीकारा है। उसक पंचम स्कंध में ऋषभावतार का प्रसंग आया है जिसमें भारत और भारतखंड का उल्लेख इस प्रकार है।
बहुरो रिषभ बड़े जब भये, नाभि राज दै बन को गए रिषभ राज परजा सुख पायो, जस ताको सब जग में छायो रिषभ देव जब बन को गए, नवसुत नवौ खंड नृप भये भरत को भरत-खंड को राव, करै सदा की धर्म अरु न्याव
उपर्युक्त तमाम उद्धरणों से अब लगभग यह स्पष्ट ही हो जाना चाहिए कि जिन भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष बड़ा वे भरत ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र थे और जन जन की श्रद्धा के शिखर बिंदु।
- हिन्दुस्तान दनिक में साभार