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अनेकान्त / 54-2
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संयम : एक प्रायोगिक साधना
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विनोद कुमार जैन, टीकमगढ़
संयम एक सतत प्रायोगिक साधना की प्रक्रिया है। इस साधना की शुरुआत करने से पूर्व संयम शब्द का अर्थ एवं अर्थ- संलिप्त भाव ( गूढ़गर्भित भाव) को समझना आवश्यक है।
संयम
सम्
+ यम
यम अर्थात् जीवन-पर्यन्त निर्वहन हेतु लिये जाने वाला व्रत। ऐसी प्रतिज्ञा जो जीवन भर के लिए धारण की जाती है।
सम्> सम अर्थात् समता । समता से स्पष्ट होता है कि निज भाव स्थिति में इच्छा-आकांक्षा, संकल्प-विकल्प रहित होकर इष्ट-अनिष्ट को एक समान ग्रहण करते हुए स्वाभावानुसार कृतित्व में दृढ़ता बनाये रखना। समता स्व से ही निसृत हो सकती है, आवरणित या थोपी हुई नहीं हो सकती। अधिक सूक्ष्मता से समझने के लिए सम का एक अन्य भाव ग्रहण करते हैं। सम से हुआ समन (शमन) अर्थात् इन्द्रियक विषय भोगों की तुष्टि, लिप्सा एवं गृद्धता आदि विकारी भावों का शमन, मतलब विकारी भावों को शांत करना या उनका उपशम होना। तो संयम शब्द को अब हम इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं "कर्मोदय के विपाक का निमित्त पाकर स्वभाव से परे उत्पन्न होने वालो विकारी भावों का शमन कर समतापूर्वक जीवन पर्यन्त निर्वहन हेतु धारण किये गये व्रत को संयम कहते हैं। "
प्रश्न उत्पन्न होता है कि इन्द्रियों का शमन ही क्यों करना व कैसे करना ?
सामान्य भाव रहता है कि इन्द्रियों एवं मन का दमन करने से संयम आता है। दमन में इच्छाशक्ति की दृढ़ता को प्रमुखता प्राप्त है, जो अज्ञानभाव से भी हो सकती है। यह बात वेगवती बहती नदी की धारा पर बांध बनाने जैसी ही बात है, धारा के वेग के विपरीत अड़कर खड़े होने
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