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अनेकान्त/54-2 conc
के प्रत्येक व्यक्ति में सुरक्षा और निश्चिन्तता की भावना को बद्धमूल करती है। प्रत्येक व्यक्ति आश्वस्त हो जाता है कि कल यदि विपन्नता ने मेरा द्वार खटखटाया, तो हमारा समाज हमें भी अपनी गोद में लेकर पूरा संरक्षण प्रदान करेगा। हीरे जवाहरात, सोना-चांदी अथवा बैंक बैलेंस कभी यह सुरक्षा नहीं दे सकता। इसलिए यदि हम पूर्ण सुरक्षा चाहते हैं, शान्तिपूर्वक निभय जीवन जीना चाहते हैं, तो हमें दानशील (अपरिग्रही ) बनना होगा। स्मरणीय है कि परिगृहीत धन-सम्पत्ति न साथ आयी है, न साथ जायेगी। दान के द्वारा जितना प्रेम प्राप्त कर लिया जायेगा, वही काम आयेगा।
समतावादी समाज का मुख्य उद्देश्य है : अनुचित राग और द्वेष का त्याग। दूसरों के साथ अन्याय तथा अत्याचार का व्यवहार नहीं करना; न्यायपूर्वक ही अपनी आजीविका सम्पादित करना; दूसरों के अधिकारों को हड़प नहीं करना, दूसरों की आजीविका को हानि नहीं पहुंचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहने का अधिकारी समझकर उनके साथ भाईचारे का व्यवहार करना, उनके उत्कर्ष में सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नहीं सोचना, जीवनोपयोगी सामग्री को स्वयं उचित और आवश्यक रखना और दूसरों को रखने देना, संग्रह, लोलुपता, शोषण की वृत्ति का परित्याग करना आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन आचार्यो ने समतावादी समाज को आदर्श समाज के रूप में स्वीकार किया है और उसकी स्थापना के लिए अपरिग्रह को प्रधान हेतु माना है। जैन आचार्यो ने जितनी शक्ति अहिंसा पर लगायी है, उतना ही बल अपरिग्रह पर दिया है, क्योंकि अहिंसा की सिद्धि अपरिग्रह के मंत्र से ही हो सकती है। अपरिग्रह का पूर्णतया पालन होने की स्थिति में साधक, साधक न रहकर सिद्धकेवली हो जाता है।
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सन्दर्भ
. लोभमोहक्रोधपूर्वकाः मृदुमध्याधिमात्रा:.. . इति
1. वितर्काः हिंसादयः.
प्रतिपक्षभावनम् । योगसूत्र 2/34
2. हिंसाऋनृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् । देशसर्वतोऽणुमहती । तत्त्वार्थसूत्र, 711-2
3. पाणातिपाता वेरमणीसिक्खापदं समादियामि । मुदावादावेरमणी. ।
अदिन्नादानावेरमणी. | अब्रह्मचरियावेरमणी. । -विसुद्धिमग्ग ।
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