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अनेकान्त/54-2
लिए रख लें। परन्तु मिश्रजी को यह स्वीकार नहीं था। उनका उत्तर था जिसने आज तक मेरा प्रबन्ध किया है, उस प्रभु का अपमान होगा, यदि मैं कल की चिन्ता करूंगा। अतः आप कृपा करके वह सब ले जाएं, जो मुझे देना चाहते हैं, वह किसी और को दे दें जिसे इसकी आवश्यकता है।
आज समाज के निन्यानबे प्रतिशत लोग ही नहीं, लाखों में एक आध को छोड़कर प्रायः सभी लोग जीवन भर के लिए ही नहीं, अपितु आगे की सात पीढ़ियों तक के लिए धन-सम्पत्ति शीघ्र से शीघ्र एकत्र करने की सोचते हैं। इसी चिन्ता में व्यापारी सामानों में मिलावट करता है, मुनाफाखोरी एवं चोरबाजारी करता है तथा टेक्स की चोरी करता है, सरकारी कर्मचारी घूसखोरी करता है और राजनेता बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार करता है। समाज का एक अन्य वर्ग लूट-खसोट, चोरी-डकैती और हत्याएं करता है।
इन सब अनाचारों के पीछे लोगों की यह मिथ्या विचारधारा, यह मिथ्यादर्शन कार्य करता है कि आज जितना धन संग्रह कर लेंगे, कल का हमारा जीवन उतना ही सुखी और सुरक्षित रहेगा। वस्तुतः धन का संग्रह करना जितना कष्टकर है, उसकी रक्षा की चिन्ता उससे अधिाक कष्टदायी है तथा धन के नष्ट होने पर जो अपार कष्ट होता है, वह कल्पनातीत है। आज समाचार पत्रों के पन्ने चोरी, डकैती और धन के कारण होने वाली हत्याओं के समाचारों से भरे रहते हैं। ऐसी हत्याएं किसी गरीब की नहीं होती, झुग्गी-झोपड़ी वालों की नहीं होती, परिग्रही लखपतियों और करोड़पतियों की होती हैं। तात्पर्य यह है कि मेहनत करके या छल-प्रपंच करके एकत्र की गयी धन-सम्पत्ति सुरक्षा नहीं, भय प्रदान करती है।
धन का सबसे अच्छा उपयोग है दान। बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रत्याशा के परिचित- अपरिचित उन सभी के लिए अपने पास विद्यमान धन सम्पत्ति अथवा उपयोग साधनों का उपयोग करना जिनको उनकी आवश्यकता है। बैंक में जमा की गयी धनराशि की अपेक्षा इस प्रकार उपयोग किया गया धन अधिक सुरक्षित रहता है, आवश्यकता पड़ने पर अप्रत्याशित रूप से हमारे पास आ जाता है। अपेक्षा रहित होकर दिया गया दान समाज में प्रेम और सौमनस्य की प्रतिष्ठा करता है, भाई-चारा बनाता है, एक-दूसरे के हृदय को जोड़ता है। दान के माध्यम से जरूरतमन्द व्यक्तियों में वितरण करते रहने की समाज की प्रवृत्ति समाज