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अनेकान्त / 54-2
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ईर्ष्या-द्वेष से युक्त होकर संचित भोजन को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करे और हिंसा आदि क्रूर कर्मों को अपनाने लगे, यह अस्वाभाविक नहीं है। दूसरी ओर साधन-सम्पन्न व्यक्ति लोभ-मोह के कारण अपनी सम्पत्ति की रक्षा के प्रयत्न में उन क्षुधापीड़ितों के प्रति भी क्रूर हो जाये, यह भी सहज ही है। यह सब संघर्ष और अशान्ति का ही रूप है, जिसका जन्म परिग्रह के कारण हुआ है। संघर्ष, कलह, हिंसा और अशान्ति की स्थिति उत्पन्न न हो, इसीलिए महावीर स्वामी सहित प्राचीन भारत के सभी प्रबुद्ध विचारकों ने अपरिग्रह को सार्वभौम महाव्रतों में स्वीकार किया है। उन लोगों ने गृहस्थों के लिए भले ही प्रमाण-परिमाण का निर्धारण किया है परन्तु यति जनों के लिए सर्वपरिग्रह के निषेध को अनिवार्य माना है। जिन गृहस्थों को आंशिक रूप से धर्मसाधन के लिए परिग्रह की अनुमति भी दी है, उनके लिए भी यह निर्देश दिया है कि वे मनोज्ञ अथा अमनोज्ञ भौतिक साधनों के प्रति आसक्ति रहित हों। इस अनासक्ति को समय-समय पर परिपुष्ट करते रहने के लिए गृहस्थों के लिए दान रूप कर्तव्य को भी आवश्यक बताया है, जिससे समाज में विषमता का जन्म न हो सके। यदि थोड़ी बहुत विषमता अनुमत परिग्रह के कारण उत्पन्न भी हुई हो, तो दान आदि के कारण उसका विलय हो सके तथा समतावादी समाज की स्थापना हो सके।
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यहां एक प्रश्न हो सकता है कि जिस प्रकार एक सामान्य गृहस्थ को आज किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर उसके पास संगृहीत धन-सम्पत्ति के विनिमय से ही अपेक्षित वस्तु सुलभ हो पाती है, उसी प्रकार भविष्य में भी किसी अनिवार्य वस्तु को प्राप्त करने के लिए विनिमय ही एक मात्र उपाय विदित होता है और विनिमय के लिए आवश्यक है संग्रह अर्थात् परिग्रह। इस प्रकार भविष्य सुखमय हो, सुरक्षित हो, इसके लिए परिग्रह आवश्यक प्रतीत होता है।
वस्तुतः भविष्य की सुरक्षा के लिए परिग्रह का होना आवश्यक नहीं है । अनेक लोगों ने गृहस्थ जीवन में भी अपरिग्रह का समग्र रूप से पालन करते हुए भी पूर्ण आनन्दमय और सुरक्षित जीवन जीकर सामान्य गृहस्थों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से मिथिला के अयाची मिश्र की कथा (इतिहास) को उद्धृत किया जा सकता है।
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